गुरुवार, जुलाई 19, 2012

धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित



धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित
वीरेन्द्र जैन
       आम तौर पर सत्ता की राजनीति करने वाले समाज के दूसरे महत्वपूर्ण पक्षों की उपेक्षा करते रहते हैं पर गत दिनों एनडीए, के अध्यक्ष  श्री शरद यादव ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक बयान देते हुए कहा है कि धर्म स्थलों में जमा धन का उपयोग [कम से कम] धार्मिक कार्यों के लिए किया जाना चाहिए। ध्यान देने योग्य ये है कि वे उस गठबन्धन के अध्यक्ष हैं जिसमें धर्म की राजनीति करने वाले दलों ,अकाली, शिवसेना, और भाजपा प्रमुख घटक हैं। उनके इस बेहद महत्वपूर्ण बयान पर अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है जबकि इस सुझाव पर तुरंत ही राष्ट्रव्यापी बहस छेड़े जाने की जरूरत है। निहित स्वार्थों की शातिर उदासी को तोड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा इस बहस को आगे बढाये और दोहरे चरित्र के नेताओं से अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहे।
       स्मरणीय है कि हमारे भक्ति काल के संत कवियों ने धार्मिक ग्रंथों से प्रेरणा लेते हुए कहा है कि-
पानी बाढो नाव में, घर में बाढे दाम
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानौ काम ,
साँईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय
तब यह विचार आना सहज स्वाभाविक ही है कि ऐसी मान्यताओं से जुड़े धर्मस्थलों में योजना विहीन धन का संग्रह किसलिए? क्या यह संग्रह धर्म में निहित करुणा की भावना की मदद कर रहा है या उसे डुबो रहा है? आखिर क्यों प्रतिदिन प्रार्थना-पूजा स्थलों व धार्मिक आश्रमों से हर तरह के अपराध की खबरें आ रही हैं? हर धर्म में अपनी जरूरत से अधिक धन का एक हिस्सा जरूरतमन्दों, अशक्तों, विकलांगों, आदि को देने के निर्देश दिये गये हैं और इसे व्यवस्थित ढंग से करने के लिए ऐसा दान धार्मिक संस्थाओं को देने की परम्परा बनायी गयी ताकि वे उक्त वितरण में एक एजेंसी की भूमिका निभा सकें। दुर्भाग्यवश धर्मस्थलों पर सवार कर्मकाण्डियों ने किसी सामान्य गृहस्थ की तरह धन का संग्रह प्रारम्भ कर दिया तथा कई मामलों में वे किसी कंजूस लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं। वे उसे समाज के हित में लगाने की जगह उसे अपने वंश के वारिसों को सौंप जाना चाहते हैं। मन्दिरों का धन न केवल बैंकों की साविधि जमा योजना के अंतर्गत जमा किया जाने लगा अपितु उसे शेयर बाज़ारों में भी लगाया जा रहा है, पर जरूरतमन्दों के हित में नहीं लगाया जा रहा है। ।  
आइए देखें कि कुछ प्रमुख धर्म संस्थाओं की वार्षिक आय कितनी है-
·         तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हिन्दीभाषी क्षेत्र में तिरुपति बालाजी के नाम से जाना जाता है, वेटिकन चर्च के बाद, दुनिया का सबसे धनी धर्मस्थल है। आज से तीन साल पहले हुयी गणना में इस देवस्थान के पास रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 5200 करोड़ है, का सालाना चढावा कई सौ करोढ से अधिक है। .
·         सिद्धि विनायक मन्दिर जो देश की वित्तीय राजधानी मुम्बई में स्थित है देश के फिल्म उद्योग और बड़े बड़े रईसों की आस्था का केन्द्र है , यह पाँच मंजिला मन्दिर अपनी भव्यता के लिए विख्यात है इसकी सालाना आमदनी तीस करोड़ रुपये है।
·         श्री माता वैष्णो देवी मन्दिर, यह मन्दिर जम्मू से करीब 50 किलोमीटर दूर कटरा में त्रिकुटा पर्वत पर स्थित है एक गुफा में है। इस मन्दिर का चढावा करीब सौ करोड़ रुपये है।
·         श्री सबरीमला मन्दिर संस्थान – ईश्वर की अपनी भूमि माने जाने वाले केरल राज्य की सहयाद्रि पर्वत माला में स्थित भगवान अयप्पा का यह मन्दिर मलयालियों का प्रमुख आस्था केन्द्र है, जिसमें नवम्बर से जनवरी तक सालाना दर्शन परिक्रमा चलती है। इसकी भी वार्षिक आमदनी 100 करोड़ से अधिक है।
·         अम्बाजी माता देवस्थान गुजरात के बनासकांठा में स्थित है जिसके ट्रस्ट के पास लगभग 40 करोड़ रुपये की वार्षिक आमदनी है। इस ट्रस्ट के पास विदेशों में बसे गुजरातियों से बहुत चढावा प्राप्त होता है।
·         पालानी देवस्थानम – तामिलनाडु के कोयम्बतूर जिले से 100 किलोमीटर दूर पालानी क्स्बे में स्थित है, इस देवस्थान में भगवान मुरुगन [शिवपुत्र कार्तिकेय] की आराधना होती है। मन्दिर के प्रबन्धन ट्रस्ट को सालाना 150 करोड़ से अधिक की आमदनी होती है। यहाँ भक्त लोग 25000 रुपये जमा करा के उसके ब्याज से प्रतिदिन अन्न दान कर धन्य महसूस करते हैं। 
       देश में सैकड़ों की संख्या में ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में लोग अपने परिवारों के साथ एकत्रित होते हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चों समेत पकी उम्र के लोग भी बहुतायत में होते हैं। अधिकांश तीर्थ स्थलों में इतने सारे लोगों के एक साथ एकत्रित होने और उस भीड़ को नियंत्रित करते हुए उन्हें अनिवार्य दैनिन्दन सुविधाएं सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है, यही कारण है कि इन तीर्थ स्थलों में आये दिन दुर्घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें ज्यादातर वयोवृद्ध और महिलाएं व बच्चे मारे जाते हैं। हमारे तरह के लोकतंत्र में विचारधारा व सिद्धांतविहीन राजनैतिक दल हर तरह की भीड़ का वोट झड़वाने में स्तेमाल करना चाहते हैं इसलिए वे हर भीड़ जुटायु प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं, पर उसमें सुधार करने की बात कभी नहीं करते। अगर धर्मस्थलों की व्यवस्थाओं और सुविधाओं में ही इस धन का का उपयोग किया जाये तो पिछले दिनों घटित दुर्घटनाओं से बचा जा सकता था जिनमें बड़ी संख्या में लोग मारे गये।
·         इस वर्ष अमरनाथ यात्रा में ही अब तक साठ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं
·         1954 में कुम्भ यात्रा के दौरान भगदड़ मच जाने से 800 से अधिक लोग मारे गये थे
·         1989 में हरिद्वार के कुम्भ मेले में हुयी भगदड़ में 350 से अधिक तीर्थयात्री मारे गये थे
·         1999 में केरल के सबरीमाला में वार्षिक मेले के दौरान भगदड़ में 51 लोग मरे थे
·         2003 में नासिक कुम्भ में गोदावरी पर हुयी भगदड़ में लगभग 40 लोग मरे थे और 100 घायल हुए थे
·         2005 में महाराष्ट्र के सतारा में मांढरा देवी मन्दिर में भगदड़ से 350 लोग मरे थे और 200 घायल हुए थे
·         2007 में गुजरात के पावागढ में भगदड़ में 11 लोग मरे थे और 30 सेव अधिक घायल हुए थे
·         अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से 146 लोगों की म्रत्यु हो गयी थी और 200 से अधिक लोग घायल हुये थे।
·         जुलाई 2008 में पुरी में जगन्नाथ रथयात्रा में भगदड़ से छह लोग मरे थे
·         प्रतिवर्ष तीर्थयात्राओं के दौरान मरने वालों का आंकड़ा बढता ही जा रहा है
       उल्लेखनीय है कि जहाँ पर धर्मस्थलों को प्राप्त आय का समुचित उपयोग हो रहा है वहाँ की व्यवस्थाएं बहुत अच्छी हैं जिनमें तिरुपति बालाजी, स्वर्ण मन्दिर अमृतसर, कामाख्या मन्दिर असम, श्रवणबेलगोला कर्नाटक, सोमनाथ गुजरात, और राजस्थान में अज़मेर शरीफ सम्मलित है। आज से कुछ वर्ष पहले सुप्रसिद्ध लेखक पत्रकार कमलेश्वर ने सवाल उठाया था कि हिन्दुओं को क्या केवल वोटों के लिए ही एकजुट होने का आवाहन किया जाता रहेगा या उनके धर्मस्थलों में जमा धन और उसके नियंत्रण के लिए भी किसी केन्द्रीय संस्थान का विचार भी सामने आयेगा? जो लोग हिन्दुओं या किसी दूसरे धर्म के लोगों की एकजुटता का नारा लगाते हैं वे राष्ट्रीय स्तर पर उनके धर्मस्थलों और धर्म के अनुयायियों के हित में उन धर्मस्थलों में जमा धन को एक केन्द्रीय प्रबन्धन समिति के अंतर्गत लाने और जरूरतमन्दों के हित में लगाने की बात क्यों नहीं करते?
       क्या शरद यादव अपने गठबन्धन के साथियों से इस विषय पर चर्चा करेंगे या केवल बयान देकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। स्मरणीय है कि गान्धीजी केवल स्वतंत्रता की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे थे अपितु, दलितों की बराबरी, कुष्ट रोगियों की सेवा, नशाबन्दी, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि दर्जनों मोर्चों पर भी काम करते थे।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जुलाई 11, 2012

आपका कथन सच नहीं है अडवाणीजी


आपका कथन सच नहीं है अडवाणीजी 

वीरेन्द्र जैन
       

 आदरणीय अडवाणीजी देश के सवसे चतुर नेताओं में से एक हैं और बहुत ही सही समय पर कूटनीतिक कदम उठाते हैं. वे कई बार ऐसे मुद्दे छेड़्ते हैं जिस पर आयी तीव्र प्रतिक्रिया का वार उनके प्रतिद्वन्दी को झेलना पड़्ता है. पिछले दिनों अडवाणीजी ने भाजपा में प्रधानमंत्री पद के अपने प्रतिद्वन्दी नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बयान देते हुए गोलमाल तरीके से कहा कि जितना गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बदनाम किया गया उतना इतिहास में किसी को नहीं किया गया. वैसे तो यह बयान उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की किताब की चर्चा करते हुए कहा है कि श्री कलाम का यह कथन गलत है कि मोदी 2002 में गुजरात में हुई हत्याओं के बाद उनकी यात्रा के पक्ष नें नहीं थे, क्योंकि वे उनको लेने एयरपोर्ट पर गये और जहाँ जहाँ वे गये उनका साथ दिया और सहयोग भी किया.  अडवाणीजी खुद जानते हैं कि यह तर्क कितना लचर है क्योंकि राष्ट्रपति की यात्रा के समय सम्बन्धित प्रदेश के मुख्यमन्त्री का एयरपोर्ट पर जाना और उनके सरकारी कार्यक्रमों में साथ रहना प्रोटोकाल के अंतर्गत अनिवार्य है. उस तरह साथ रहने से मोदी के किये काम धुल नहीं जाते.
       गुजरात के गान्धीनगर से संसद में पहुँचने वाले अडवाणीजी का यह कहना कि सोची समझी साजिश और राजनीति के तहत मोदी पर हमला किया जा रहा है, एक चतुराई भरा बयान है जिसे चालाकी भरा बयान भी कहा जा सकता है. सब जानते हैं कि गुजरात के गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगी आग और उसमें दो कारसेवकों समेत 59 व्यक्तियों के जल जाने के बाद पूरे गुजरात में सरकारी संरक्षण में मुसलमानों का नरसंहार हुआ था, उस समय प्रधान मंत्री तो छोड़ दीजिए, नरेन्द्र मोदी पूरी तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री कद के नेता भी नहीं बने थे. जब अक्टूबर 2001 में सीधे मुख्यमंत्री पद पर श्री मोदी अवतरित हुये तब विधानसभा चुनावों के लिए कुल एक वर्ष का समय शेष था और उस समय गुजरात में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ बहुत नीचे जा चुका था. यही कारण था कि केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटा कर संघ के कुशल प्रचारक व समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने में कुशल श्री नरेन्द्र मोदी को किसी भी तरह चुनाव जीतने के लिए आजमाया गया था. उस समय भाजपा की लोकप्रियता का हाल यह था कि विधायकों के रिक्त पद भरने के लिए चार विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुये थे जिनमें से तीन में कांग्रेस उम्मीदवार जीते थे और चौथे में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जीते थे. यह जानना रोचक होगा कि मुख्यमन्त्री रहते हुए भी मोदी की जीत उस विधायक की जीत से आधे से भी कम मतों से हुयी थी जिससे मोदी के लिए सीट खाली करवाई गयी थी. कहने का अर्थ यह है कि मोदी को जानबूझ कर बदनाम करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उनके प्रधानमंत्री तो क्या अगला मुख्यमंत्री बनने के बारे में भी कोई सोच भी नहीं सकता था, सच तो यह है कि श्री अडवाणीजी की रथयात्रा के दौरान भी जो हिंसा की घटनाएं हुयीं वे किसी भी तरह से कम भयावह नहीं थीं तथा बाबरी मस्ज़िद को तोड़ने के बाद मुम्बई में जो बम विस्फोट और दंगे हुए वे भी उतने ही भयंकर थे और उनका क्षेत्र अनेक राज्यों तक फैला हुआ था, ऐसा लगता है कि श्री अडवाणी. अपने प्रधानमंत्री पद प्रतियोगी के गुजरात में घटित नरसंहार को बड़ा बता कर अपने कारनामों को घटाने का खेल खेल रहे हैं, जबकि धर्मनिरपेक्ष शक्तियों ने हमेशा ही साम्प्रदायिकता का विरोध किया है चाहे वह 1992 की हो या 1984 की।
       स्मरणीय है कि मुख्यमंत्री बनने और गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार घटित होने देने के बाद भी मोदी का व्यवहार किसी की बात पर ध्यान न देने वाले बजरंग दल के बाहुबली की तरह रहा है. उल्लेखनीय है कि संघ परिवार में संघ प्रचारक, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंगदल, भारतीय मजदूर संघ आदि 62 से अधिक संगठनों के लिए जो चयन किया जाता है उसमें बौद्धिक स्तर की विशेष भूमिका होती है. उक्त सभी संगठनों में काम लर चुके श्री मोदी ने घटनाओं के बाद मृतकों के परिवारों हेतु जो मुआवजा घोषित किया उसमें साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में मारे गये लोगों लिए दो लाख और शेष गुजरात में मरने वालों में जिनकी लाशें मिल गयीं उनको एक एक लाख का मुआवजा घोषित किया जबकि दोनों ही मामलों में गर्वीले गुजरात के निर्दोष लोग ही मारे गये थे, अंतर केवल इतना था कि वे लोग जिस परिवार में जन्म लेने को विवश हुए थे उसी के धर्म को अपने नाम के साथ जोड़्ने लगे थे. उसी दौरान जब भारत ने ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में विश्व कप जीता तथा राज्य सरकारों ने खिलाड़ियों को करोड़ों रूपयों के धन से पुरस्कृत कर अपनी राष्ट्रीय भावना को व्यक्त किया तब मोदी जी ने अपने भरे पूरे क्रिकेट प्रेमी राज्य के खिलाड़ियों को कुल एक एक लाख रूपये देने की घोषणा की क्योंकि उनके राज्य से खेलने वाले खिलाड़ियों के नाम इरफान पठान और यूसुफ पठान थे।
       नरेन्द्र मोदी ने हत्यारों के पक्ष नें खड़े होते हुए कहा था कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है जबकि यह स्पष्ट था कि शेष गुजरात में मारे गये और दूसरे दूसरे रूप में प्रताड़ित लोगों का गोधरा में घटित घटना से कोई सम्बन्ध नहीं था. जब इस तरह निर्मित ध्रुवीकरण का लाभ उठाने के लिए मोदी तुरंत चुनाव कराने के पक्षधर थे और चुनाव आयोग कानून और व्यवस्था के अनुसार चुनाव की तिथि को आगे बढाना चाहता था तब श्री मोदी तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह के खिलाफ अनर्गल और अश्लील बयान देने पर उतर आये अपितु यह भी कहा कि यह सब कुछ वे सोनिया गान्धी के इशारे पर कर रहे हैं जिनसे शायद वे चर्च में मिलते होंगे. इतना ही नहीं  अडवाणी ने इसी दौरान उन्हें पिछले पचास साल का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री बतलाया और अपने कारनामों पर उन जैसे नेता से शह पा अपनी चुनावी यात्राओं में श्रीमती सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी को जर्सी गाय और बछड़ा कह कर सम्वोधित किया. उन्होंने मुसलमानों पर पाँच पत्नियाँ रखने और पच्चीस बच्चे पैदा करने का आरोप भी लगाया. सच तो यह है कि जब इस मामले पर राजधर्म पालने की सलाह देने वाले अटलजी त्यागपत्र देने वाले थे तब जसवंत सिंह ने उन्हें हाथ पकड़ कर रोका था. क्या अडवाणीजी अटलजी को भी मोदी की बदनामी करने वालों में सम्मलित करना चाहेंगे. इन घटनाओं के बाद ही एनडीए का पतन शुरू हो गया था और रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, फारूख अब्दुल्ला समेत उनके तमाम सहयोगी दलों के लोगों ने खुली आलोचना की थी व जनतादल(यू) बीजू जनता दल आदि भी खुल कर साथ नहीं दे पा रहे थे। आइ ए एस अधिकारी शर्म के मारे अपने पद से स्तीफा देने लगे थे व सारी दुनिया में थू थू हो रही थी। यह बदनामी नहीं सबकी सच्ची भावना थी.
       अडवाणीजी जिसे ऐतिहासिक बदनामी कह कर उस बदनामी को उकेरना चाहते हैं वह एक कटु सच्चाई है, जिसे अमेरिका और इंगलेंड जैसे देशों ने वीसा देने से इंकार करके संकेत दिया था. वे यह भूल रहे हैं कि मोदी ने सारे बड़े नेताओं के कहने के बाद भी अपने मंत्रि मण्डल के सदस्य रहे हरेन पंड्या को टिकिट नहीं दिया था, और बाद में उनकी हत्या हो गयी थी. उनके शोक में घर गये अडवाणीजी के सामने ही हरेन पंड्या के पिता ने चीख चीख कर मोदी को हत्या के लिए जिम्मेवार ठहराया था, क्या यह बदनामी के लिए था. मोदी के मंत्रिमण्डल को सुशोभित करने वाली महिला मंत्री को जेल जाना पड़ा और केबिनेट मंत्री को प्रदेश से बाहर होना पड़ा क्या ये भी अदालत ने उनकी बदनामी के लिए किया था? मोदी के सबसे विश्वस्त पुलिस अधिकारी को इशरत हत्याकांड में जेल भेजा जाना क्या किसी षड़यंत्र का हिस्सा है जबकि एक आईपीएस अधिकारी अपनी नौकरी और जान का खतरा मोल लेकर भी कह रहा है कि उसे 2002 में हत्यारों और लुटेरों के प्रति नरमी बरतने के निर्देश बैठक में दिये गये थे.
       महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, मानव अधिकार आयोग आदि आदि सैकड़ों संगठनों, जाँच समितियों समाचार पत्रों, सूचना माध्यमों, राजनीतिक दलों की रिपोर्टों की बात तो छोड़ ही दीजिए उनके अपने संजय जोशी और तोगड़िया भी क्या मोदी को बदनाम करना चाहते हैं या दरी के नीचे बहुत सारी गन्दगी दबी है. एक बार यह मान भी लिया जाये कि मोदी  और उनके लोग कोई जिम्मेवार नहीं थे तो एक प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के नाते क्या अपने प्रदेश के निर्दोष लोगों के मारे जाने, घर उजाड़े जाने, धन सम्पत्ति और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को लूट कर बरबाद कर देने के बारे में आपको चिंता क्यों नहीं हुयी? इसके विपरीत कमजोर अभियोजन के कारण आरोपियों के छूट जाने पर खुशियाँ क्यों मनायी गयीं? 
       नीतीश कुमार और शिव सेना का बयान एक बार को हथकण्डा भी हो सकता है पर, क्या केशुभाई पटेल, काशीराम राणा, सुरेश मेह्ता, गोरधन झड़पिया आदि सभी गलत हैं जो कह रहे हैं कि मोदी के शासन काल में एक लाख करोड़ से अधिक के 17 घोटाले हुए हैं.               
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जुलाई 07, 2012

पी. ए. संगमा से सहानिभूति


              पी ए संगमा जी से सहानिभूति
                                                                                   वीरेन्द्र जैन
       कुल चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति करने वाले श्री पी ए संगमा जी को जब लोकसभा के अध्यक्ष [1996-98]का महत्वपूर्ण पद मिला तब उनकी उम्र 49 वर्ष थी और वे इससे पहले मेघालय के मुख्यमंत्री समेत केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्रालय[1080], वाणिज्य[1982] वाणिज्य और आपूर्ति मंत्रालय[1984], गृह मंत्रालय[1984], श्रम मंत्रालय[1986], कोयला मंत्रालय[1991-93], में राज्य मंत्री व बाद में श्रम मंत्रालय[1995], सूचना और प्रसारण मंत्रालय[1995-96] में केबिनिट मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे। वे 1988 में मेघालय के मुख्य मंत्री और 1990 में मेघालय विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर भी रह चुके हैं। डिब्रूगढ विश्वविद्यालय से  अंतर्राष्ट्रीय समबन्धों में स्नातकोत्तर श्री संगमा कानून के स्नातक भी हैं। 1973 में मेघालय प्रदेश युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर पहुंचे संगमा 1975 से 1980 तक प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1980 से लगातार सांसद या विधायक बने रहने वाले संगमा अनेक संसदीय समितियों के सदस्य रहे हैं। वे उत्तरपूर्व के उन राज्यों से संसद में प्रतिनिधित्व करते रहे हैं जहाँ की राजनीति शेष भारत की राजनीति से कुछ भिन्न है तथा जहाँ उग्रवाद और अलगाववाद को नियंत्रित करने के लिए भारतीय सेना कुछ विशेष अधिकारों के साथ नियुक्त है। अनुसूचित जाति जनजाति की सूची में से जनजाति में आने वाले संगमा धर्म से ईसाई हैं।
       सांस्कृतिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, और भाषायी विविधिता वाले इस देश में जब केन्द्रीय सरकार मंत्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व देती है तो उसकी कोशिश रहती है कि सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो ताकि राष्ट्रीय एकता को बल मिले।  मेघालय जैसे सीमांत प्रदेश से प्रतिनिधित्व करने वाले श्री संगमा को केन्द्रीय राजनीति में उपरोक्त पदों पर प्रतिष्ठित होने में उनके आरक्षित जनजाति के होने और धर्म से ईसाई होने के कारण भी अतिरिक्त प्रोत्साहन मिलना सहज स्वाभाविक है। यही कारण है कि चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति में प्रवेश करने के बाद उन्होंने सदैव ही किसी न किसी पद को सुशोभित किया है। गैर कांग्रेसी सरकारों के दौरान भी वे संसदीय समितियों के सम्मानीय सदस्य रहे हैं। पद पर बने रहने की आदत भी दूसरी आदतों की तरह वैसी ही होती है जिसे गलिब के शब्दों में कहें तो ‘छुटती नहीं है गालिब ये मुँह को लगी हुयी यही कारण रहा कि कांग्रेस के सत्ता से बाहर होते ही श्री संगमा ने 1999 में सोनिया गान्धी को विदेशी मूल का होने का गैर राजनीतिक भाजपाई मुद्दा उठा दिया और ऐसा ही मुद्दा उठा रहे शरद पवार के साथ मिल कर एनसीपी का गठन कर लिया, पर जब श्री पवार को चुनावों में अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो उन्होंने श्रीमती गान्धी का नेतृत्व स्वीकारते हुए कांग्रेस के साथ गठबन्धन कर लिया। तब उनसे असहमत श्री संगमा ने स्वयं को एनसीपी का असली अध्यक्ष मानते हुए शरद पवार के साथ चुनाव चिन्ह का मुकदमा लड़ा जिसे हार जाने के बाद वे ममता बनर्जी के साथ मिल गये और नैशनल तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी के कुल दो सदस्य जीते जिसमें से एक वे स्वयं थे। बाद में उन्होंने उसे भी छोड़ दिया और फिर से एनसीपी में सम्मलित हो गये।  2009 में उन्होंने अपनी बेटी को लोकसभा में भेजा और यूपीए में मंत्री बनवाया। दूसरी ओर यह भी सच है कि अनेक पदों पर रहने और दो वर्ष तक लोकसभा अध्यक्ष पद को सुशोभित करने के बाद भी उनकी छवि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन सकी भले ही उनकी महात्वाकांक्षाएं किसी भी सीमा को मानने के लिए तैयार नहीं हुयीं।
       पिछले दिनों जब श्री संगमा ने स्वयं को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने का हल्का काम किया था तो उसे बहुत प्रशंसा नहीं मिली थी क्योंकि उनके अपने तत्कालीन दल एनसीपी ने उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था और बाद में तो एनसीपी अध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से बयान भी दिया कि वे यूपीए में हैं और यूपीए द्वारा चयनित उम्मीदवार का ही समर्थन करेंगे। इस घोषणा के बाद भी उनका अपनी उम्मीदवारी को वापिस न लेना तब तक हास्यास्पद सा ही रहा जब तक कि एक कूटनीतिक कदम के रूप में बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और एआईडीएमके की जयललिता ने उनके समर्थन पर विचार करने की घोषणा न कर दी थी। संयोग से एनडीए में सहमति न बनने और जीत सुनिश्चित न होने के कारण ममता बनर्जी और भाजपा द्वार प्रस्तावित पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब ने उम्मीदवार बनने से इंकार नहीं कर दिया, और विपक्ष प्रतीकात्मक चुनावी लड़ाई लड़ने लायक भी नहीं बचा, तब स्वयं उम्मीदवार बने घूम रहे श्री संगमा पर ध्यान गया और इन दिनों भाजपा को संचालित करने वाले चतुर चालाक सुब्रम्यम स्वामी की सलाह पर विभाजित एनडीए ने संगमा का समर्थन करने का फैसला ले लिया। इस मामले में राजनीति के चाणक्य और भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी श्री लाल कृष्ण अडवाणी ने साफ कहा कि इस समर्थन के पीछे बीजू जनता दल और एआईडीएमके के साथ रिश्ते बनेंगे जिससे 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने गठबन्धन की जमीन बढाने में मदद मिलेगी। उनके कथन से साफ है कि वे चुनाव परिणाम की असलियत को जानते हैं और श्री संगमा की हार के बारे में आश्वस्त हैं, पर इस हार से भी वे अगली 2014 की सम्भावनाओं का रास्ता बना रहे हैं। सुब्रम्यम स्वामी एक वकील हैं और देश की लोकतांत्रिक राजनीति को कानून की बारीकियों या उसके छिद्रों से चलाना चाहते हैं। यूपीए उम्मीदवार श्री प्रणव मुखर्जी के लाभ के पद पर होने की तकनीकी सम्भावना से चुनाव को विचलित करने का दाँव उन जैसों की सलाह पर ही लगाया गया होगा।
       जब आंकड़े साथ नहीं देते तो महात्वाकांक्षाओं से घिरा व्यक्ति यथार्थवाद से दूर होकर भाग्यवादी बन जाता है यही कारण रहा होगा कि आदिवासी राष्ट्रपति के नाम पर चुनाव लड़ने वाले, धर्म से ईसाई श्री संगमा किसी हिन्दू ज्योतिषी से तीन बज कर इकतीस मिनिट का महूर्त निकलवा कर फार्म भरते हैं और मतदाताओं से आत्मा की आवाज पर वोट देने की अपील करते हैं। पत्रकारों द्वारा जीत का आधार पूछे जाने पर कहते हैं कि कोई चमत्कार होगा। दूसरी ओर आंकड़ों के आधार पर जीत के प्रति आश्वस्त प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि उन्हें चमत्कारों पर विश्वास नहीं है।  
       सब अपनी अपनी रोटियां सेंक रहे हैं ऐसे में संगमाजी से सहानिभूति ही प्रकट की जा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जून 22, 2012

भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व और उसके विरोधाभास


भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व और उसके विरोधाभास  
वीरेन्द्र जैन
      देश में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है और यही कारण है कि जब भी कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा होता हुआ दिखता है तो उसके पीछे बहुत सारे लोग यह सोचे बिना ही आ जाते हैं कि जब तक यह समर्थन किसी सार्थक परिवर्तनकारी राजनीति और राष्ट्रव्यापी संगठन के साथ नहीं जुड़ता तब तक किसी परिणिति तक नहीं पहुँच पाता। जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन हो या वीपी सिंह का अभियान हो वे व्यापक राजनीतिक दृष्टि और संगठन के बिना चलाये गये थे इसलिए बिना कोई परिवर्तन किये बड़ी घटनाएं बन कर रह गये। आज अन्ना का आन्दोलन हो या रामदेव का वे भी इसी दोष के शिकार हैं इसलिए उनकी परिणिति भी तय है। स्मरणीय है कि विदेशों में जमा धन को वापिस लाने को भाजपा ने अपना चुनावी मुद्दा बनाया था किंतु उसे आन्दोलन का रूप देने की कोई कोशिश नहीं की। जब रामदेव और अन्ना हजारे ने इस समस्या पर आन्दोलन प्रारम्भ किये तो कई राजनीतिक दल तो इनके पीछे इसलिए आ गये ताकि इनके अभियान से उठी लहर में वे अपनी नैय्या पार लगा सकें।
       भाजपा से जुड़े संगठनों ने तो साफ साफ कहा कि अन्ना के अनशन के दौरान उन्होंने न केवल संसाधनों में मदद की थी अपितु भीड़ एकत्रित करने में योगदान भी किया था। उनका यह बयान अन्ना टीम के लिए नुकसान दायक साबित हुआ था। अपनी सोच और अतीत में किये गये कारनामों के कारण भाजपा और उससे जुड़े जनसंगठन इस तरह से बदनाम हैं कि उनके सहयोग की भनक भर आन्दोलन को कमजोर करने के लिए काफी होती है इसलिए वे विपक्ष में रहते हुए भी इस विषय पर आन्दोलन नहीं छेड़ते पर उसका सम्भावित लाभ लेने के लिए परदे के पीछे से प्रयास करते हैं। स्मरणीय है कि जब अन्ना हजारे के आन्दोलन के प्रति लोगों में तीव्र आकर्षण पैदा हुआ था तब संघ ने भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले आन्दोलन न छेड़ने के लिए भाजपा नेताओं को फटकार लगायी थी। रामदेव तो परोक्ष रूप से भाजपा से जुड़े ही रहे हैं और उनके ट्रष्ट भाजपा को विधिवत चन्दा देते आये हैं। यह अलग बात है कि उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकारने में तब तक कतराते रहे जब तक मीडिया में प्रमाण सहित सच सामने नहीं आ गया।
      एक बार असफल हो जाने के बाद अन्ना हजारे और रामदेव ने सन्युक्त होकर पुनः आन्दोलन छेड़ने की योजनाएं तैयार की हैं और भाजपा जैसे दल उसके समर्थन को लपक लेने की तैयारी करने लगे हैं। असल में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोशित जनता के साथ एक और धोखा है कि उसकी भावनाओं को उस दल को बेच दिया जाये जिसे जनता पसन्द नहीं करती। इस आन्दोलन में कहीं भी चुनाव प्रणाली, कार्यपालिका व न्यायपालिका में वांछित परिवर्तन का नक्शा नहीं है जिनके चलते वर्तमान में जो भी कानून हैं वे निष्प्रभावी हैं, और उनके होते हुए भी भ्रष्टाचार ने इतना बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लिया है।
      अभी हाल ही में घटित घटनाओं पर इन संगठनों ने जो टिप्पणियां की हैं उनसे इनकी कूटनीति का पता चलता है। अल्पसंख्यकों के मन में भाजपा के प्रति जो सन्देह हैं वही सन्देह भाजपा के जनसंगठनों से सहायता लेने वाले इन आन्दोलनकारियों के प्रति न रहें इसलिए इन्होंने कुछ वैसे ही टोटके किये हैं जैसे कि राजनीतिक दल करते रहते हैं। पिछले वर्ष अन्ना हजारे ने जब अनशन तोड़ा था तो एक मुस्लिम और एक दलित कन्या के हाथों से जल ग्रहण करने का ड्रामा किया था। विदेशों में जमा पैसा वापिस लाने का आन्दोलन चलाने वाले आयुर्वेद दवाओं के उद्योगपति रामदेव ने अपनी आन्ध्रा यात्रा के दौरान पृथक तेलंगाना राज्य की माँग का समर्थन किया था जिसे भाजपा अपना समर्थन दे रही है। पिछले महीने रामदेव ने आल इंडिया यूनाइटिड मुस्लिम मोर्चे के बैनर तले नई दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में आयोजित सम्मेलन में कहा कि अगर हिन्दू दलितों को आरक्षण मिलता है तो मुस्लिम दलितों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत धार्मिक आधार पर पाबन्दी पूरी तरह गलत है, इस अनुच्छेद में बदलाव आना चाहिए। मैं इसके खिलाफ लड़ाई का ऐलान करता हूं। इस अवसर पर उन्होंने ‘बिसिमिल्लाह’ से शुरुआत करते हुए कुरान की आयत भी पढी। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमान देशभक्त हैं और देश पर जान कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। स्मरणीय है कि मुस्लिम विरोधी भाजपा मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं है पर उसने रामदेव के इस कूटनीतिक बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की, जबकि कांग्रेस द्वारा यही बयान देने पर आसमान सिर पर उठा लेती। स्मरणीय है पिछले वर्ष रामदेव अपना राष्ट्रीय स्वाभिमान दल बनाकर उस बैनर से पूरे देश में चुनाव लड़ने की समय पूर्व घोषणा कर चुके थे, तथा भाजपा से झिड़की खाने के बाद उसे वापिस ले लिया था।
      गत दिनों यूपीए द्वारा प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाये जाने के बाद टीम अन्ना ने उन पर लगाये गये पुराने आरोपों को उसी तरह से उकेरा जैसे कि श्रीमती प्रतिभादेवी सिंह पाटिल को उम्मीदवार बनाये जाने पर भाजपा ने उनके परिवार वालों के खिलाफ लगाये थे। जो अपने आन्दोलन को गैर राजनीतिक प्रचारित करते हैं उनके द्वारा ऐसे समय कथित आरोप लगाये जाने से उनके राजनीतिक लक्ष्यों की झलक मिलती है। उल्लेखनीय है कि हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप में जिन जगन मोहन रेड्डी को सीबीआई कैद में रख कर पूछ्ताछ कर रही है, उनकी जेबी पार्टी द्वारा उपचुनावों में सारी सीटें जीत लिए जाने के बाद भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलनरत टीम अन्ना ने न तो उन पर टिप्पणी करने की जरूरत समझी और न ही चुनाव प्रणाली के दोषों पर ही कोई टिप्पणी की। जब तक जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस से अलग नहीं हुए थे तब तक भाजपा की ओर से उन पर और उनके पिता वाय एस रेड्डी पर अनगिनित आरोप ही नहीं लगाये जाते थे अपितु वे उनके ईसाई होने के कारण सोनिया गान्धी के संरक्षण मिले होने का आरोप भी लगाते थे। पर अब भाजपा नेता मनेका गान्धी जगन मोहन की माँ से सहानिभूति व्यक्त करती हैं और भाजपा उनके साथ गठबन्धन के प्रति वैसे ही लालायित है, जैसा कभी सुखराम और जयललिता के साथ कर चुकी है।  
      अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों को ही राजनीतिक दल बनाने, या गठबन्धन करने का पूरा अधिकार है पर वे जिस नैतिकता की दुहाई देते हुए अपना आन्दोलन चला रहे हैं उसके  आधार पर जनता को मूर्ख बनाने का अधिकार नहीं है। रामदेव कई लाख करोड़ डालरों के स्विस बैंकों में जमा होने की बात कहते रहे हैं किंतु स्विट्जरलेंड के केन्द्रीय बैंक स्विस नैशनल बैंक ने अपने सालाना विवरण में जानकारी दी है कि सन 2011 के अंत तक भारतीयों के 218 करोड़ स्विस फ्रैंक अर्थात कुल 12740 करोड़ रुपये जमा थे। पर राजनीतिक दलों की तरह आन्दोलन चलाने वाली यह जोड़ी बिना किसी जिम्मेवारी के मनमाने  आरोप लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने आँकड़ों को कहीं सिद्ध नहीं करना है अपितु सत्तारूढ दल के खिलाफ माहौल बनाना है। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में वे आपस में भी एक दूसरे को ठगने लगते हैं। रामदेव टीम अन्ना के नाभिक अरविन्द केजरीवाल को मंच पर ही डाँट देते है और उनकी अभिव्यक्ति को रोक देते हैं तो खुद जाकर शरद पवार समेत सभी नेताओं से मिलते हैं। टीम अन्ना के प्रमुख लोग खुद भी अन्ना के अनशन इतिहास के कारण उन्हें मुखौटा बनाये हुए हैं और विसंगति आने पर कहते हैं कि डाकूमेंट अंग्रेजी में होने के कारण उनके नेता अन्ना को समझ में नहीं आया। ये लोग एक दूसरे का समर्थन हड़प लेना चाहते हैं, और भाजपा जैसे दल इनके द्वारा पैदा किये गये जनउभार से राजनीतिक लाभ उठाने की फिराक में उनके मददगार हैं। पिछले साल भर में इस क्षेत्र में जैसी जैसी घटनाएं हुयी हैं उसमें कहा नहीं जा सकता कि कब किसका सच सामने आ जाये और आन्दोलन की हवा निकल जाये या कितने अग्निवेष और निकलें।  कुछ लोग इसे आन्दोलन न कह कर तमाशा कहते हैं और लगता है कि वे गलत भी नहीं हैं।  
 वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, जून 15, 2012

मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा


                                 मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा  
                                                                                    वीरेन्द्र जैन
      जैसे कि सुब्रम्यम स्वामी उस जनता पार्टी के प्रमुख हैं जिस नाम की पार्टी ने कभी इमरजैन्सी लगाये जाने से आक्रोशित जनता का समर्थन हासिल करते हुए केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनायी थी, पर  सुब्रम्यम स्वामी की यह जनता पार्टी, आज वही जनता पार्टी नहीं है केवल उसका साइनबोर्ड भर है। वैसे ही अब भाजपा रूपी जनसंघ वह पार्टी नहीं रह गयी है जो आज से कुछ दशक पहले थी, या अपने जनसंघ रूप में जन्म लेने के समय थी। इसकी रीढ टूट चुकी है और अब यह एक अपंग पार्टी हो गयी है।
      भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा है जो संघ के लक्ष्य को पाने के लिए उसके 62 अन्य संगठनों की तरह चुनावी मोर्चे पर इस उद्देश्य से काम करती है ताकि सरकार बना के आंतरिक सुरक्षा बलों, और आर्थिक संसाधनों पर अधिकार किया जा सके और अंततः संघ के हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। देश की बहुसंख्यक जनता संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक नीतियों को पसन्द नहीं करती इसलिए जनता को  भ्रमित करने के लिए उन्हें जनसंघ व भाजपा के माध्यम से उदारतावादी मुखौटे लगा कर आना पड़ा। पर जब इन मुखौटों के बाद भी उनका समर्थन  मतदान में दस प्रतिशत से आगे नहीं गया तब उन्होंने अपनी नीतियों पर पुनार्विचार की जगह दूसरे दूसरे तरीकों से जनता को भरमाने और संख्याबल बढाने की हरसम्भव कोशिश की। ऐसा करके वे या तो सत्तारूढ हुए हैं या प्रमुख विपक्षी दल बन कर, सत्तारूढ पार्टी की अलोकप्रियता के समय नकारात्मक समर्थन मिलने की ताक में रहते हैं।  जोड़ तोड़ की दम पर यह पार्टी न केवल राज्यों में सफल भी हुयी अपितु  1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार चलायी।
      सच तो यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी का शरीर कृत्रिम हवा भर कर फुलाया। संविद सरकारों के दौर में वे बिना किसी न्यूनतम कार्यक्रम के प्रत्येक संविद सरकार में सप्रयास सम्मलित हुये व भितरघात करते रहे। संघ की अनुमति से अपने संख्या विस्तार के लिए उसने बड़े पैमाने पर दलबदल को प्रोत्साहन दिया व कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। उसके सारे फैसले संघ के इशारों पर होते रहे हैं क्योंकि हर स्तर के संगठन सचिव संघ के प्रचारकों को ही नियुक्त किये जाने का नियम है और इस तरह उसका पूरा नियंत्रण रहता है, पर बात बात में हस्तक्षेप करने वाले संघ ने कभी भी इस दलबदल को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की। कभी अपने को सैद्धांतिक और अन्य पार्टियों से भिन्न बताने वाली यह पार्टी आज दलबदल की ईंटों से खड़ी पार्टियों में सबसे प्रमुख पार्टी है। दलबदल के खिलाफ कानून बनने तक उन्होंने इसी अनैतिक कदम के द्वारा ही सरकारें बनायीं। इससे उसके वोट प्रतिशत का भी विस्तार हुआ। जिस नेहरू-गान्धी परिवार के लोगों को वे पानी पी पी कोसते हैं, उसी परिवार के दो सदस्यों मनेका गान्धी और वरुण गान्धी को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके सादर टिकिट दिया आज वे न केवल अपनी मर्जी से ही अपना टिकिट तय करते हैं अपितु वरुण की पत्नी को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनावों में उनके द्वारा चयनित और समर्थित प्रत्याशियों की करारी हार के बाद मनेका पीलीभीत से और वरुण सुल्तानपुर से इस विश्वास के साथ चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं, कि पार्टी को तो टिकिट देना ही पड़ेगा। अपना बड़ा समर्थन दिखाने के लिए उन्होंने क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म स्टार, आदि को भर्ती किया जो उनकी सभाओं में भीड़ जुटाने के भरपूर पैसे लेते हैं जो उनकी एक दिन की शूटिंग के पारिश्रमिक से कई गुना होते हैं। इसी तरह साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले प्रवचनकर्ताओं को लालच देकर उन्हें उनके धार्मिक काम की जगह धर्मभीरु लोगों के वोट खींचने के लिए नियुक्तियां दीं, जिनमें से कुछ को तो उन्हें विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बनाना पड़ा। रामजन्मभूमि मन्दिर विवाद को उन्होंने साम्प्रदायिक रूप देकर ध्रुवीकरण कराया व साम्प्रदायिक दंगों की श्रंखला खड़ी करके ध्रुवीकरण द्वाराअपनी जीत का माहौल बनाया।
      राज्यों में जहाँ जहाँ उनकी सरकारें बनीं उन्होंने संघ की संस्थाओं के नाम पर जमीनों और भवनों का कौड़ियों के मोल में अधिग्रहण किया तथा विभिन्न अवैध और अनैतिक तरीकों से अटूट धन संग्रहीत किया। संघ की ओर से इन विकृत्तियों को रोके जाने या भ्रष्ट लोगों को मंत्रिमण्डल से हटाये जाने के कभी निर्देश नहीं दिये गये। परिणाम यह हुआ कि भाजपा के संगठन और संसद में  कमाऊ पूत ही स्थान पाते गये। दिवंगत प्रमोद महाजन को तो नागपुर अधिवेशन में अटलबिहारी वाजपेयी ने अपना लक्षमण बतलाया था। आज भी वे पहले उसके बेटे, फिर बेटी को राजनीति से जोड़े रखने के भरपूर प्रयास करने में लगे हुए हैं। नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनते समय कभी पार्टी छोड़ देने की धमकी देने वाले गोपीनाथ मुंडे को लोकसभा में उपनेता बनाना पड़ा था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा उठाये गये इस सवाल का कि गडकरी के पास इतना पैसा कहाँ से आया, आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया।              
            भाजपा सदैव से ही ऐसी नहीं थी। अपने पूर्व नाम जनसंघ के प्रारम्भिक दौर में कुछ सिद्धांतवादिता शेष थी। स्मरणीय है कि ; प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था और राजस्थान विधान सभा में इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ग्यारह विधायक ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकाल दिया और पार्टी के पास मात्र दो विधायक रह गए। जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के पच्चीस विधायकों में से चौदह ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकाल दिया। किंतु आज येदुरप्पा से लेकर मोदी तक और वसुन्धरा से लेकर उमाभारती तक के मामलों में भाजपा दृड़ता नहीं दिखा सकी। इसका प्रमुख कारण उसकी सत्ता लोलुपता है। कुर्सी के लिए उन्होंने जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने से लेकर कैसे कैसे गलत और अनैतिक समझौते किये हैं उनकी सूची बहुत लम्बी और सर्वज्ञात है। आज भाजपा के रूप में जनसंघ का केवल नाम चल रहा है, जहाँ अवैध पैसे की दम पर वोट खरीदे जाते हैं तथा झूठ और षड़यंत्र के सहारे चुनाव के समय साम्प्रदायिकता फैला कर ध्रुवीकरण किया जाता है। हिन्दू एकता का ढोंग करने वाले आज चुनावों में  जातिवाद  का भरपूर सहारा लेते हैं और अपने राजनीतिक आर्थिक हितों के लिए जातिवादी दलों के साथ गलबहियां करते हैं। वे वोटों के लालच में सारे सांसदों को गालियाँ देने वाले  बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक किसी भी आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते हैं जबकि एक बड़े आकार का दल होने के कारण ये राजनीतिक आन्दोलन उन्हें स्वयं चलाने चाहिए थे।
           
आज भाजपा चुनावी सौदेबाजी में माहिर और सिद्धांतहीन गठजोड़ के लिए सदैव उतावली संस्था के रूप में सत्ता के लिए टकटकी लगाये रहती है। आज यह उस संस्था के रूप में जानी जाती है जिसमें मूल्य और लोकतंत्र की जगह जिद और दबाव के आगे बार बार झुकने के दृष्य सामने रहे हैं। आज भाजपा सिद्धांतों के लिए सत्ता का दाँव इसलिए नहीं खेल पा रही क्योंकि वो रीढहीन हो चुकी है जो भ्रष्टाचार के आरोप में कैमरे के सामने आये राष्ट्रीय अध्यक्ष को तब तक पार्टी में ढोती है जब तक कि उसे सजा नहीं हो जाती उसकी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा में भेजने को विवश होती है।
      अपने षड़यंत्रकारी तरीकों के कारण वे हर सहभागी से डरते हैं जो उनकी पोल खोल सकता है, वे राज्यों के हर उस मुख्यमंत्री और मंत्री से डरते हैं जो उनके खजाने को निरंतर भर रहे हैं और इसी के सहारे अपने खजाने को भी कुबेर का खजाना बना लेते हैं। आज उनकी सबसे बड़ी ताकत पैसा, अवसरवादिता, सैद्धांतिक लोच, और विकल्प हीनता वाले क्षेत्र ही हैं। यही कारण है कि आज अनुशासन नाम का भी नहीं रह गया है और इसी के अनुसार उसके नेतृत्व की छवि भी प्रभावित हुयी है  इस रीढहीनता के चलते वे कभी भी विलुप्त जातियों की सूची में सम्मलित हो सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जून 07, 2012

पाँचजन्य और आर्गनाइजर, मुखपत्र या मुखौटापत्र






पाँचजन्य और आर्गनाइजर, मुख पत्र या मुखौटा पत्र

वीरेन्द्र जैन
       

 गत दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सम्पर्क प्रमुख राम माधव ने भोपाल में कहा कि पांचजन्य और आर्गनाइजर का संचालन स्वयंसेवक करते हैं लेकिन उनमें प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार संघ के विचारों से मेल खाएं यह जरूरी नहीं है। वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में आरएसएस के दो मुखपत्रों में छपे अलग अलग विचारों के बारे में सफाई दे रहे थे।
       विकीपीडिया पर बताया गया है कि आर्गनाइजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का इन-हाउस पब्लिकेशन/न्यूज पेपर है, जिसे ही हिन्दी में मुख पत्र कहा जाता है। यही सूचना पांचजन्य के बारे में है। दोनों ही साप्ताहिक पत्र एक ही स्थान से मुद्रित व प्रकाशित होते हैं और दोनों का कार्यालय संस्कृति भवन देशबन्धु गुप्ता मार्ग झंडेवालान दिल्ली में स्थित है। जो संघ के दिल्ली कार्यालय के समीप है। दोनों साप्ताहिकों के समाचारों के सूचना माध्यम एक ही होते हैं, व दोनों के ही लेखों के लेखक भले ही अलग अलग होते हों किंतु विषय और विचार एक ही होते रहे हैं। दोनों साप्ताहिकों का पाठक वर्ग भी संघ समर्थक मध्यम वर्ग है। महात्मा गान्धी की हत्या के बाद और इमरजैंसी में जब संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया तब इन समाचार पत्रों का प्रकाशन भी प्रभावित हुआ और ये डूबा साध कर बैठ गये। दोनों के सम्पादक संघ से जुड़े लोग रहे हैं।
       देश के स्वतंत्र होने के बाद प्रकाशित इन दोनों साप्ताहिकों के जीवन में यह पहली बार हुआ है जब इनके सम्पादकीय लेखों के विचारों में वैसा ही भेद नजर आया जैसा कि संघ समर्थित अडवाणी और मोदी के विचारों में दृष्टिगोचर हुआ। अपनी कमजोरी पर विचार करने, उसे समझने, भूल स्वीकारने व उसके लिए क्षमाप्रार्थी होने, की परम्परा संघ में नहीं रही है। वे दोषी व्यक्ति से अपने सम्बन्ध को ही नकार देते रहे हैं, जैसा कि महात्मा गान्धी के हत्यारे गोडसे के मामले में किया था। इन्हीं से प्रशिक्षित होकर निकले भाजपा के नेता भी इसी तरकीब का अनुसरण करते हैं। अडवाणीजी ने बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बाद कहा था कि उसे तोड़ने वाले तो मराठी लोग थे जिन्हें मैं रोकता रहा पर मेरी भाषा न समझने के कारण मेरी अपील का कोई असर नहीं हुआ। कर्नाटक के खनन माफिया रेड्डी बन्धुओं से उपकृत और उन्हें आशीर्वाद देने वाली सुषमा स्वराज उनके फँस जाने के बाद उनसे कोई भी सम्बन्ध होने से इंकार कर देती हैं। मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष रोहाणी से लेकर ऐसे सैकड़ों अन्य प्रकरण गिनाये जा सकते हैं। साध्वी की वेषभूषा धारण करने वाली प्रज्ञा सिंह और उसकी टीम से अपने सम्बन्ध भी संघ परिवार ने साफ नकार दिये थे और सीडी सामने आने के बाद संजय जोशी से तुरंत दूरी बना ली थी। इसलिए पाँचजन्य और आर्गनाइजर को संघ का मुख पत्र होने से इंकार करने पर अचम्भित लोगों को सम्पादकों  से संघ के विचारों की असहमति वाले बयान से कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा।
        विडम्बनापूर्ण स्थिति आ जाने पर संघ के बयानवीर कहने लगते हैं कि हम भाजपा के कार्यों में कोई दखल नहीं देते, केवल माँगने पर उन्हें सलाह देते हैं। इसके विपरीत सच यह है कि भाजपा में संघ की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता रहा और उसकी छोटी से छोटी घटना पर भी उसकी निगाह रहती रही है, जिसके लिए प्रत्येक स्तर के संगठन मंत्री का पद संघ प्रचारक के लिए आरक्षित रखा गया है। भारतीय लोकतंत्र में इस दूसरे सबसे बड़े दल की कार्यप्रणाली में संघ ही सबसे बड़ी बाधा रहा है। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मौल्लिचन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप से दुखी होकर ही स्तीफा दिया था। देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार संघ के साथ दुहरी सदस्यता के कारण ही बिखरी थी जिससे विकसित हो रही लोकतांत्रिक प्रणाली को बड़ा धक्का लगा था। एनडीए के गठबन्धन में और बाद में उसके निरंतर कमजोर होते जाने में सबसे बड़ा कारण संघ का हस्तक्षेप ही रहा है। संघ के कारण ही तेलगुदेशम अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में सम्मलित नहीं हुयी थी अपितु उसे अपनी शर्तों पर बाहर से समर्थन देना मंजूर किया था जिससे सरकार लगातार अस्थिरचित्त रही। लाल कृष्ण अडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता को अपना अध्यक्ष पद संघ के दबाव में ही छोड़ना पड़ा था जबकि कार्यकारिणी के दस प्रतिशत सदस्य भी ऐसा नहीं चाहते थे। यही कारण रहा कि
आडवाणी ने 2005 सितंबर में चेन्नई में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये कहते हुए संघ को आईना दिखाने की कोशिश की थी कि, बीजेपी के बारे में ये धारणा बन गई है कि इसके कोई राजनीतिक या सांगठनिक निर्णय आरएसएस की सहमति के बगैर नहीं होते, ऐसी धारणा से बीजेपी के साथ संघ का भी नुकसान हो रहा है।भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने की कल्पना तक किसी भाजपा सदस्य ने नहीं की थी किंतु उन्हें न केवल संघ ने पूरी पार्टी पर थोप दिया अपितु राज्यों के चुनावों में खराब प्रदर्शन की बाबजूद दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है।
      संघ परिवार का इस समय मूल संकट ही यह है कि इस अति का विरोध प्रारम्भ हो गया है राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने संघ के सबसे चहेते गुलाब चन्द्र कटारिया की प्रस्तावित जनजागरण यात्रा को धूल चटा दी व संघ को अपनी हरी झंडी को लाल में बदलना पड़ा। नरेन्द्र मोदी स्वयं को गुजरात का प्रधानमंत्री समझते हैं और कुछ उद्योगपतियों द्वारा स्वार्थवश उनकी अतिरंजित प्रशंसा कर देने के कारण वे अपने काल्पनिक पद का विस्तार करने के सपने देखने लगे हैं। वे भी अपनी उम्मीदवारी में पहली चुनौती संघ को मान रहे हैं इसीलिए उन्होंने समय रहते उसे चुनौती दे दी है व उसके द्वारा नियुक्त संजय जोशी को निकालने के लिए अपने वीटो का प्रयोग कर दिया। उत्तर प्रदेश में तो योगी आदित्यनाथ अपने क्षेत्र में अपने स्वयं की आरएसएस चलाते हैं। उत्तराखण्ड और हिमाचल में भी सुगबुगाहट है क्योंकि इन क्षेत्रों में साम्प्रदायिकता का असर कमजोर है जो आरएसएस की जीवनी शक्ति है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में भी किसान संगठन के लोग संघ की पकड़ से निकल भागे हैं।
      प्रत्येक मतभेद को आंतरिक लोकतंत्र कहने का तरीका अब घिस चुका है और प्रभावित नहीं करता। संघ के लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि जिस विषय पर ये आंतरिक लोकतंत्र कौंध रहा है उस विषय पर उनका कहना क्या है और वे किस तरफ हैं। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि अगर ये दोनों पत्र केवल मुखौटापत्र हैं त्तो उनके संगठन के मूल फैसले कहाँ पर उपलब्ध होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जून 01, 2012

अडवाणीजी अब तो सच्चाई स्वीकारिये


अडवाणीजी अब तो सच्चाई स्वीकारिये
वीरेन्द्र जैन
       दर्शन शास्त्र के एक प्रोफेसर को साधारण भौतिक वस्तुएं भूल जाने की बीमारी थी। बरसात की एक शाम जब वे भीगे हुए अपने घर के दरवाजे पर पहुँचे तो घर में प्रवेश से पहले ही तेज याददाश्त वाली उनकी पत्नी ने पूछा छाता कहाँ है?
वह तो कहीं खो गया प्रोफेसर ने बताया
...पर कहाँ? पत्नी ने क्रोधपूर्ण जिज्ञासा की
वह तो पता नहीं वे बोले
आखिर आपको कब पता चला कि छाता खो गया है? पत्नी का अगला प्रश्न था
जब बरसात बन्द हो गयी और मैंने छाता बन्द करने के लिए हाथ ऊपर किया तो पता चला कि छाता तो है ही नहीं प्रोफेसर ने बताया।        
       भाजपा के वरिष्ठतम नेता पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी को भी भाजपा से जनता के निराश होने का ज्ञान तब हुआ जब उन्हें सारी उम्मीदवारियों से मुक्त कर दिया गया अर्थात उनकी आशाओं पर न केवल पानी फेर दिया गया अपितु पौंछा भी लगा दिया गया। इतना ही नहीं गडकरी ने अपने चहेते भामाशाह अंशुमान मिश्रा द्वारा जो अपने पैसे की दम पर भाजपा अध्यक्ष को जेब में डाले हुए है, उनका अपमान भी करा दिया जिसने भारतीय राजनीति के इस सबसे वरिष्ठ नेता को रिटायर होकर नाती पोतों को खिलाने की सलाह दे डाली है और इस रामलीला पार्टी में राजनीतिक भूमिकाओं को अभिनेताओं की भूमिकाओं से तुलना करते हुए कहा है कि देश को ए.के. हंगल नहीं आमिर और रणवीर कपूर की जरूरत है। स्थिति की बिडम्बना यह भी है कि भरी पूरी पार्टी में उन लोगों का अकाल दिखा जो अपने नेता के इस अपमान का विरोध करते क्योंकि सारी ही पार्टी लालचियों और चापलूसों के गिरोह में बदल गयी है, जो गडकरी जैसी कठपुतली को सलाम कर सकते हैं पर अडवाणी के अपमान पर अफसोस भी नहीं कर सकते। जब अडवाणी के सहारे सत्ता तक पहुँचने की सम्भावनाएं थीं तब इन्हीं लोगों ने रथ यात्रा के दौरान उनको गिरफ्तार किये जाने पर पूरे देश में हिंसक उपद्रव कर दिये थे।
       वैसे अडवाणी ने भाजपा के प्रति जनता के रुख का सार्वजनिक खुलासा अभी किया हो पर जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें हैं या वह किसी क्षेत्रीय पार्टी के नीचे किसी राज्य सरकार में सम्मलित है वहाँ वहाँ जनता की निराशा के पर्याप्त संकेत सूचना माध्यमों पर उपलब्ध हैं। उन्हें छुपाने के लिए सम्बन्धित राज्यों के जनसम्पर्क विभाग द्वारा पर्याप्त मात्रा में खैरातें बाँटी जा रही हैं, पर वे फिर भी रोके नहीं रुक रहीं। निराश जनता ने एनडीए का शासन भी भोग लिया है और वह जानती है कि सरकार के सहारे लूटखसोट करने में ये सबसे आगे रहते हैं इसलिए जनता अब इन्हें विकल्प के रूप में नहीं देख रही। जहाँ तक बाबूलाल कुशवाहा समेत उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गये मंत्रियों को भाजपा में सम्मलित करने का सवाल है, वह भाजपा के लिए कोई नया हथकण्डा नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चलाने के लिए उन सुखराम से गलबहियाँ करने से गुरेज नहीं किया गया था जिन पर छापा पड़ने पर इन्होंने छह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। शिबू सोरेन समेत दागी मंत्रियों को हटाने के नाम पर इन्होंने सदन के कई महत्वपूर्ण दिन बरबाद करवा दिये थे उन्हीं के साथ आज झारखण्ड में सरकार बनाये हुए हैं और वही शिबू सोरेन अपने लड़के के नाम पर सरकार चला रहे हैं और अपनी सरकार में भाजपा अपना राज्य सभा का उम्मीदवार तक नहीं जितवा पाती। जिन जयललिता के भ्रष्टाचार के खिलाफ इन्होंने संसद में तूफान मचा दिया था उन्हीं के सहारे अटल बिहारी ने एनडीए की सरकार चलायी तथा इतनी चिरौरियां करते हुए चलायी कि जयललिता अटलजी के रक्षा मंत्री को घंटों बाहर बिठाये रखती थीं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की शुरुआत भी एनडीए शासन काल में ही हो गयी थी, जिसमें अडवाणीजी उपप्रधानम्ंत्री थे व ‘प्रधान मंत्री के सारे काम’ देख रहे थे।      
       सत्ता के लिए सारे अनैतिक हथकण्डे अपनाना व सभी तरह के समझौते करना गडकरी ने अपने पूर्ववर्तियों से ही सीखा है। टिकिट न मिलने या किसी अन्य असंतोष की वजह से अपनी पार्टी छोड़ने वाले सारे प्रमुख नेताओं को भाजपा ने आगे बढकर गले लगाया है और उसका एक बड़ा हिस्सा दलबदलुओं या लोकप्रिय सितारों को किराये से लेकर से भरा हुआ है। दलबदल करा के पूरे विधायक दल को किसी पर्यटन स्थल पर कैद करने की परम्परा भी भाजपा ने ही शुरू की थी व दलबदल में सौदेबाजी की शुरुआत भी मध्यप्रदेश में संविद शासन के लिए विजया राजे सिन्धिया द्वारा थैली खोल देने से ही हुयी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ छह छह महीने सरकार चलाने का बेहद हास्यस्पद प्रयोग भी भाजपा की देन है। इस पर इनके सहयोगी बाल ठाकरे ने व्यंग किया था कि अगर कुछ पैदा करना था तो छह छह महीने क्यों कम से कम नौ नौ महीने  का समझौता तो करना चाहिए था। समस्त दलबदलुओं समेत सौ लोगों का मंत्रिमण्डल बनाने का अजीब प्रयोग भी उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह सरकार में किया गया था जिसके मंत्रियों का यहाँ तक कहना था कि मंत्री बने छह महीने हो गये पर हमारे पास आज तक एक भी फाइल दस्तखत होने नहीं आयी। पूर्व डकैतों को टिकिट देने की शुरुआत भी भाजपा ने ही की थी जब उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ मलखान सिंह को खड़ा किया था, बाद में तो यह फार्मूला ही चल निकला था। आज भी प्रत्येक चुनाव में आत्मसमर्पित दस्यु या जमानत पर छूटे अपराधी टिकिट माँगते देखे जाते हैं। नगर निकायों या पंचायती राज में तो उनमें से कई अभी भी विभिन्न पदों पर कब्जा किये हुए हैं। अभी हाल ही में हरियाणा के उपचुनाव में इन्होंने उन्हीं भजनलाल के बेटे के साथ समझौता किया था जिन्हें भ्रष्ट और अवसरवादी बताते हुए इन्होंने लम्बा समय गुजारा है।
       अवसरवादी, समझौता परस्ती का यह दोष भले ही भाजपा में अब अपने चरम पर पहुँच गया हो किंतु इसकी शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी और कोई भी ऐसा काम अडवाणी की जानकारी के बिना सम्भव ही नहीं था। कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं को इस दशा तक पहुँचाने में अडवाणी की परम शिष्य श्रीमती सुषमा स्वराज के आशीर्वाद का ही हाथ रहा है जिन्हें श्रीमती सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव में उतारा गया था और चुनाव की पूरी व्यवस्था रेड्डी बन्धुओं ने की थी। यदि उम्र के इस पड़ाव पर अडवाणीजी सचमुच ही अपने किये पर पछता रहे हों तो उन्हें चाहिए कि वे अब एक सच्ची आत्मकथा लिखें और पूरे राजनीतिक जीवन में अपने द्वारा किये या देखे गये उन कामों का खुलासा करें जो अभी तक जनता के सामने नहीं आये हैं। यदि उन्होंने ऐसा करने का साहस जुटाया तो वे प्रधानम्ंत्री बनने की तुलना में इतिहास में अमर हो सकते हैं और भारतीय लोकतंत्र को अपना आत्मावलोकन करने व सुधरने का अवसर मिल सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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