बुधवार, नवंबर 28, 2012

कसाव को फाँसी, भाजपा के गले की फाँस


कसाब को फाँसी भाजपा के गले की फाँस  
वीरेन्द्र जैन 
            जो लोग झूठ के हथियारों से लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें पराजय के साथ शर्मिन्दगी भी झेलेना पड़ती है। कसाब को फाँसी के बाद भाजपा की हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है।
       दर असल भाजपा के पास हमेशा से ही राजनैतिक मुद्दों का अभाव रहा है और वह अपने जनसंघ स्वरूप के समय से ही ऐसे मुद्दों का सहारा लेती रही है जो परम्परावादी लोगों के बीच भावुकता भड़का कर चुनाव जीतने  वाले मुद्दे थे और जिनका जनहित से दूर दूर का भी नाता नहीं रहा। 1967 में उन्होंने गौहत्या विरोध के नाम पर साधुओं के भेष में रहने वाले भिक्षुकों को एकत्रित करके संसद पर हमला करवा दिया था, जो भारतीय संसद पर हुआ पहला हमला था, पर इसके योजनाकारों को कभी कोई सजा नहीं मिली। सुरक्षा में मजबूरन पुलिस को गोली चलाना पड़ी थी जिसमें छह सात निरीह भावुक लोग मारे गये थे। इस गोली कांड का सहारा लेकर उन्होंने पूरे देश के लोगों को भड़काने की कोशिश की थी जिसमें वे काफी हद तक सफल रहे थे और सीधे सरल आस्थावान हिन्दुओं के बीच जनसंघ उत्तर भारत में एक प्रमुख वोट बटोरू दल के रूप में उभर आया था। बाद में तो राम मन्दिर, रामसेतु, राम वनगमन मार्ग, ही नहीं काशी मथुरा समेत साढे तीन सौ धर्मस्थलों की सूची तैयार कर ली थी जहाँ पर मुस्लिमों से टकराहट लेकर मतों का ध्रुवीकरण कराया जा सकता था। राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर कराये गये दंगों का इतिहास अभी पुराना नहीं हुआ है, और बाबरी मस्जिद को ध्वंस करने वालों को अभी तक सजा नहीं मिल सकी है। 1984 से 1992 तक कभी रामशिला पूजन और कभी अस्थिकलश यात्रा के बहाने पैदा किये गये दंगों से जनित ध्रुवीकरण ने उन्हें दो सीटों से दो सौ तक पहुँचा दिया था। यही कारण रहा कि वे हमेशा ही ऐसे मुद्दे तलाशते रहे। सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई धर्मस्थलों और उनके स्कूलों व अस्पतालों पर अकारण हमले शुरू कर दिये थे, व ईसाई मिशनरियों को जिन्दा जलाने लगे थे, ताकि इस बहाने सीधे सरल आस्थावानों को ईसाइयत विरोध के नाम पर कांग्रेस के विरुद्ध किया जा सके। ईसाई विरोध के नये नये आयाम तलाशने के चक्कर में उन्होंने दो रुपये के उस सिक्के को भी अपना हथियार बनाना चाहा जिस पर चार रेखायें एक दूसरे को काट रही थीं जिसे उन्होंने ईसाइयों के क्रास की तरह प्रचारित करते हुए बड़ा विरोध किया जैसे कि इस सिक्के पर बने क्रास जैसे चिन्ह के कारण हिन्दू चर्च में जाकर ईसाई धर्म अपना लेगा।   
      यह दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्ज़िद ध्वंस की ही प्रतिक्रिया थी कि जनवरी 1993 में पूरी मुम्बई में विस्फोट हुए व दर्जनों जानें जाने के साथ अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। बाद में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं दिल्ली, जम्मू, गुजरात, बनारस, कानपुर, पुणे, आदि पचासों जगहों पर हुयीं और जन धन का नुकसान हुआ। इस प्रतिक्रिया के बहाने हुए ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए संघ-भाजपा परिवार के संघटनों से जुड़े लोगों ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सफाई के साथ आतंकी घटनाएं कीं व मीडिया मैनेजमेंट द्वारा सारा सन्देह मुस्लिमों की ओर मोड़ दिया गया था, जिसके बारे में प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद जस्टिस काटजू ने बहुत स्पष्ट ढंग से मीडिया की निन्दा की थी। यदि मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में निर्माणाधीन बमों में असमय विस्फोट होने की दुर्घटनाएं नहीं हुयी होतीं तो किसी को पता भी नहीं चलता कि अजमेर, हैदराबाद, समझौता एक्सप्रैस आदि में विस्फोट की घटनाओं के पीछे वे लोग नहीं थे जो प्रचारित किये गये थे, और वर्षों से जेलों में बन्द थे।
      मुम्बई में पाकिस्तान से आये हुए तालिबानी आतंकवादियों द्वारा ताज, ओबेराय, ट्राईडेंट होटलों तथा इजरायलियों की बस्ती वाले नरीमन प्वाइंट वाले स्थान पर किये गये हमलों में चुन चुन कर अमेरिकियों को मारने व रेलवे स्टेशन पर और एक अस्पताल पर अँधाधुन्ध फायरिंग से सुरक्षा बलों का ध्यान भटकाने की योजना को पूरा करते हुए जिस हमलावर को जीवित पकड़ा गया था उसका नाम कसाब था। शायद यह सन्योग ही हो कि इन घटनाओं में आतंकवाद विरोधी सैल के वे महत्वपूर्ण अधिकारी भी मारे गये थे जिन्होंने आतंकी घटनाओं में हिन्दुत्ववादी आतंकियों को पकड़ा था और जल्दी ही कोई बड़ा रहस्य उजागर करने वाले थे। जीवित पकड़े गये आतंकी को जल्दी से जल्दी मार देने के लिए, नेतृत्व में वकीलों के बाहुल्य वाला दल भाजपा सर्वाधिक उतावला था, व इस माँग को वह अपनी राष्ट्रभक्ति की नकाब से में लपेट कर उठा रहा था। ऐसा करते हुए वह भारतीय न्याय प्रक्रिया के प्रावधानों के प्रति भी आँखें बन्द किये हुए था। उसने एक ऐसे कैदी के बारे में अतिरंजित व्ययों का प्रचार करना शुरू किया जिसमें किसी सम्वेदनशील कैदी को दी गयी सुरक्षा का खर्च भी सम्मलित था। ऐसा करके वे और सभी तरह के मीडिया में फैले हुए उनके प्रचारक यह दुष्प्रचार करने में लगे हुए थे कि देश की सरकार, पुलिस, और न्याय व्यवस्था इस दुर्दांत हमलावर को बचाने में लगी है व उसे विशिष्ट स्वादिष्टतम भोजन और सुख सुविधाएं उपलब्ध करा रही है। सुरक्षा व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के ऊपर आने वाले सारे व्यय को उसके ऊपर हुए व्यय के रूप में प्रचारित किया जा रहा था व कसाब को सरकार के दामाद के रूप में बता कर पूरे देश की व्यवस्थाओं का अपमान किया जा रहा था। सच यह था कि कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829रूपये मात्र खर्च किए गए।इन प्रचारकों ने इस दौरान कभी भी इस मापदण्ड से साध्वी के भेष में रहने वाली प्रज्ञा सिंह ठाकुर, दयानन्द पाँडे आदि पर हुए व्यय का हिसाब नहीं लगाया और लगाया हो तो उसे सार्वजनिक नहीं किया। उल्लेखनीय यह भी है कि जब तक ये हिन्दू आतंकवादी नहीं पकड़े गये थे तब तक आतंकवाद सरकार के खिलाफ भाजपा का मुख्य मुद्दा हुआ करता था पर इन आतंकियों के पकड़ में आने के बाद भाजपा ने आतंकवाद का विरोध करना बन्द कर दिया क्योंकि वह तो आतंकवाद के नाम पर पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा कर ध्रुवीकरण ही कराना चाहती थी जो अब सम्भव नहीं रह गया था। अब जब कसाब पर हुए खर्च के आँकड़े सामने आ गये हैं तब भी इन्होंने अपने दुष्प्रचार पर शर्मिन्दा होकर क्षमा माँगने की जरूरत नहीं समझी।
      देश में सब जानते और चाहते थे कि कसाब को फाँसी ही होगी और होना भी चाहिए थी क्योंकि किसी भी न्याय के पास इससे बड़ी कोई दूसरी सजा नहीं है। वह एक क्रूरतम अपराध का औजार था और अधिकतम सम्भव दण्ड का पात्र था। एक लोकतांत्रिक देश की न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यह सजा हुयी भी, किंतु संघ परिवार ने जिस तरह से इस स्वाभाविक प्रक्रिया के बीच में जो दुष्प्रचार किया वह परोक्ष में बहुत कपटपूर्ण था। प्रचारित यह किया गया कि यूपीए सरकार वोट बैंक के चक्कर में कसाब जैसे दुर्दांत अपराधी की सजा को टाल रही है और उस पर करोड़ों फूंक रही है। जाहिर है कि वोट बैंक से उनका मतलब मुस्लिम वोट बैंक से था और इस तरह वे परोक्ष में देश के पूरे मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के इस आतंकी से सहानिभूति रखने वाला बताते हुए उन्हें गद्दार बता रहे थे, जबकि पूरे देश में कहीं भी किसी मुस्लिम संगठन ने इन आतंकियों के प्रति सहानिभूति नहीं दिखायी थी। मुम्बई के मुस्लिम समाज ने तो मारे गये आतंकियों को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से ही मना कर दिया था। पर ध्रुवीकरण से अपने दल का विस्तार करने वाले इनके संगठक ऐसा कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं अपितु जो नहीं होता है उसे भी अपने झूठ के सहारे पैदा करने की कोशिश करते हुए इससे होने वाले देश के नुकसान के बारे में भी नहीं सोचते।
      उल्लेखनीय है कि कसाव और उसके स्थानीय सहयोगी बताये गये लोगों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी जिस के कारण उन दो लोगों को अदालत ने ससम्मान बरी कर दिया था जिन पर सहयोग का आरोप बनाया गया था। यदि उन लोगों को यह वकील नहीं मिला होता तो शायद उन्हें भी आरोपानुसार सजा मिल गयी होती, पर उस वकील की हत्या किसने की यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, इस हत्या की जाँच की माँग भाजपा ने करना जरूरी नहीं समझा क्योंकि न्याय और अन्याय की उनकी अपनी परिभाषाएं या मान्यताएं हैं जो भारतीय संवैधानिक न्याय व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। बहरहाल कसाब की फाँसी से इकलौते बच रहे आतंकी का अंत भी हो गया है, पर भाजपा के हाथ से दुष्प्रचार का एक बड़ा कार्ड छिन गया है और वे यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि अगर अपनी न्याय व्यवस्था को धता बताते हुए यही काम कुछेक महीने पहले हो जाता तो देश का कितना भला हो जाता! कोई आश्चर्य नहीं कि ये लोग कोई और नया मुद्दा तलाश लें पर जैसे जैसे इनकी कलई खुलती जा रही है इनके मुद्दे भी मुर्दों में बदलते जा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, नवंबर 19, 2012

दिवंगत बाला साहेब ठाकरे- जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा


दिवंगत बाला साहब ठाकरे -जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा
वीरेन्द्र जैन
       बाला साहब ठाकरे ने हिन्दुत्व और मराठी जातीयता की राजनीति को आधार बनाया था, व इस के आधार पर उन्होंने जो संगठन खड़ा किया था उससे देश की आर्थिक राजधानी में व्यापार कर रहे कुबेरों की नस दबाने में सफल रहे थे। जिस दौरान मुम्बई में जो बड़े स्मगलर और माफिया गिरोह थे उनके सरगना कुछ मुस्लिम थे इसलिए उन्होंने अपना संगठन बनाने के लिए हिन्दुत्व का सहारा लिया तथा कुछ साउथ इंडियन थे जिनसे टकराने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र में मराठी का नारा उछाला। उनके काम से सुरक्षा पाने वाले धनपतियों ने उन्हें धन और साधन दोनों ही उपलब्ध कराये तथा इस तरह अर्जित धन को उन्होंने संगठन के लिए खर्च किया और पूरी मुम्बई में जगह जगह शिवसेना के स्थानीय कार्यालय बनाये जहाँ एक भयानक शेर के चित्र के नीचे कैरम व शतरंज खेलते हुए बाहुबली युवा देखे जा सकते थे। ये उनकी सेना थे और इसीलिए उन्होंने अपने संगठन का नाम शिवसेना रखा जो लगभग भारतीय पुलिस और न्याय व्यवस्था के समानांतर कार्यरत रही। प्रारम्भ में उन्होंने युवाओं को खर्च दिया पर बाद में अपनी संगठन की दम पर ये स्थानीय कार्यालय आत्म निर्भर होते गये थे। क्षेत्र में प्रत्येक अवैध काम करने वालों को इन संगठनों को वैसे ही हफ्ता देना पड़ता था जैसे कि पूरे देश की पुलिस वसूल करती है। बड़े स्तर पर व्यवसाय करने वालों को भी अपनी सुरक्षा के नाम पर मोटी रकम चुकानी पड़ती थी। क्रमशः उनकी संगठन क्षमता बढती गयी और देश के सबसे महत्वपूर्ण नगर निगम पर अधिकार करने से प्रारम्भ कर उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपने पैर फैला लिये, तथा भाजपा के साथ मिलकर एक बार प्रदेश में सरकार भी बनायी। गठबन्धन की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की पूछ परख बढ जाने से राष्ट्रीय राजनीति में भी दखल देने लगे थे।
       महाराष्ट्र की राजनीति में अपना स्थान बना कर बाला साहब ठाकरे ने राष्ट्रीय दल भाजपा की राजनीति को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया क्योंकि उन्होंने जो साम्प्रदायिक आधार लिया था उसी पर भाजपा काम करती है और इस तरह वे महाराष्ट्र में भाजपा के प्रतियोगी रहे। दूसरी ओर उन्होंने भाजपा के साथ जब भी गठबन्धन किया तब अपनी शर्तों पर किया, और बड़ा हिस्सा अपने लिए सुरक्षित रखा। जल्दी से जल्दी सत्ता हथियाने के लालच में भाजपा ने स्वाभिमान बेच कर देश भर में जो समझौते किये हैं उनमें बाला साहब के साथ किये गये समझौतों में सबसे अधिक नीचा देखना पड़ा है। इसका कारण यह था कि शिवसेना की कार्यनीति और दल का आधार उन्हें महाराष्ट्र से बाहर के सपने नहीं देखने देता था, और महाराष्ट्र में उन्होंने इतना बड़ा संगठन खड़ा कर लिया था कि भाजपा को उनके साथ समझौता करने को मजबूर होना पड़ता था। दूसरी ओर बाला साहब की कोई मजबूरी नहीं होती थी कि वे झुक कर समझौता करें। उनका सिद्धांत था कि -
दोस्ती हो तो मेरे तौर पै हो
बरना ये मेहरबानी किसी और पै हो
       उल्लेखनीय है कि भाजपा ने अपनी सत्ता लोलुपता में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया। यहाँ पर भी उनके गठबन्धन साथी को उस समय सत्ता में आने की बहुत जल्दी नहीं थी तथा वे भी झुकना नहीं चाहते थे इसलिए बसपा से अधिक विधायक होने के बाद भी भाजपा ने छह छह महीने मुख्यमंत्री बनने का बेहद हास्यास्पद समझौता किया। भाजपा बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी थी फिर भी पहला मुख्यमंत्री बनने की शर्त बहुजन समाज पार्टी की मानने को मजबूर हुए। उस समय पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और धर्म बहिन बनीं थी तथा वह जातिवाद पर आधारित बहुजन समाज पार्टी की नेतृत्व वाली पहली सरकार थी जो भाजपा की मदद से बनी थी। इस पर भाजपा का मजाक उड़ाते हुए कार्टूनिस्ट रहे बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि यह छह छह महीने की सरकार क्या होती है? अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने की सरकार तो बनाते।  उनके इस बयान के बाद से भाजपा की बहुत ही छीछालेदर हुयी थी और बाद में तो मायावती ने छह महीने बाद भी स्तीफा देने से इंकार कर दिया था। पाकिस्तान के प्रति अपनी नफरत का मुखर प्रदर्शन करने वाले बाला साहब ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ की भारत यात्रा के दौरान सुषमा स्वराज का उनको आदाब करते हुए चित्र के प्रकाशन पर कहा था कि यह मुद्रा तो मुजरे की मुद्रा है तथा सुषमा जी को इसकी क्या जरूरत पड़ गयी थी। वे अपने मित्र शरद पवार को भी आलू का बोरा कहा करते थे।
       पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने अपने बड़े गठबन्धन पार्टनर भाजपा के उम्मीदवार के खिलाफ कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का खुला समर्थन किया था जिसे उनकी मराठी राजनीति की मजबूरी बताया गया था किंतु इस चुनाव के दौरान भी उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करके यह बता दिया था कि वे भाजपा के पिछ्लग्गू नहीं हैं। महाराष्ट्र में जहाँ संघ का मुख्यालय है, भाजपा की बड़त को रोक कर उन्होंने देश को भाजपा की जकड़ में आने से बहुत हद तक रोके रखा है। उनकी विचारधारा और कार्य प्रणाली से बहुत से लोगों को असहमतियां रही हैं पर कभी विषस्य विष औषधिम की तरह उनके अंकुश के परिणाम सकारात्मक भी रहे हैं। अटल बिहारी की सरकार को तो उन्होंने इतना मजबूर कर रखा था कि अपने पिता के नाम पर भी डाक टिकिट जारी करवा लिया था। आज जहाँ जहाँ भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली राज्य सरकारें हैं वहाँ की मानव अधिकारों के दमन की खबरें रोंगटे खड़े कर देती हैं, तब ऐसा लगता है कि अगर कोई सार्थक विरोध पैदा नहीं हो पा रहा हो तो कम से कम कोई प्रतियोगी ही पैदा हो जाये जो इन निरंकुश सरकारों पर लगाम लगा सके। बाला साहब के सारे दबावों के बाद भी भाजपा कभी उनके खिलाफ मुँह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकी, उनके निधन से भाजपा पर लगाम लगाये रखने वाला एक महत्वपूर्ण सवार नहीं रहा है। दुखद यह है कि उनकी विरासत जिन लोगों के हाथों में जाने वाली है उनकी रीड़ मजबूत नजर नहीं आती।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 02, 2012

त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं


समाज
त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं
वीरेन्द्र जैन
            त्योहार खुशियों से जुड़े होते हैं। कहा जाता हैं कि त्योहार आते हैं,खुशियां लाते हैं। भले ही त्योहारों का खुशियों से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जाता है पर सदैव ऐसा होता नहीं है। हिन्दी के एक सर्वाधिक लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज ने कहा है- ''खुशी जिसने खोजी वो धन ले के लौटा''। त्योहारों  का सम्बन्ध धन से है तब ही वे खुशियां ला पाते हैं।
            खुशियों के लिए धन इसलिए जरूरी होता है क्योंकि खुशियां मनायी जाती हैं और खुशियां मनाने का काम अकेले नहीं हो सकता। अकेले बैठे बैठे अगर आप हँसते मुस्कराते हैं तो पागल समझे जा सकते हैं। ठहाकों के लिए मित्र रिशतेदार परिवार या कुछ अन्य लोगों का होना जरूरी है। खुशी का प्रतीक पटाखों वाला अनार बताया जाता है या फव्वारा- क्योंकि खुशियां फूटती हैं वैसे ही जैसे कि अनार फूटता है या फव्वारा अपनी नन्हीं नन्हीं बूंदें बिखेरता है। यह फूटना और बिखेरना इकतरफा नहीं होता अपितु बहुआयामी होता है- अपना पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे - की तरह खुशियां फैल और बिखर जाना चाहती हैं। यह दान का उफान होता है जो खुशी की ऊष्मा से आता है। अगर हम खुश हैं तो मन कुछ बांटने को, कुछ लुटा देने को करेगा। उसके लिए जरूरी है आपके पास कुछ होना चाहिये। बड़ा आदमी मिठाई बांटता है तो छोटा आदमी इलाइचीदाने या गुड़ चने का प्रसाद चढा कर प्रसाद के नाम पर बांट देता है। यह फैलना और बिखरना कोई निवेश नहीं होता है कि और अधिक पाने की आशा में बीज बोया जा रहा हो। ईसाई धर्म में शायद इसीलिए कहा गया होगा कि एक ऊंट भी सुई के छेद से गुजर सकता है किंतु एक कंजूस आदमी को स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। कंजूस आदमी कभी खुश होता नहीं देखा जाता क्योंकि उसे लगता हे कि हँसे तो फॅसे। खुश होने के अवसरों पर भी वह विगत या सम्भावित दुखों की कल्पना से अपने को संतुलित कर खुश होने से बच लेता है।

            त्योहारों की तिथियां निर्धारित रहती आयी हैं क्योंकि वे हमारी उत्पादन व्यवस्था से जुड़े होते थे। उनकी परम्परा की स्थापना के समय कृषि ही मुख्य उत्पादन था जो मौसमों पर आधारित थी व मौसम का समय चक्र निर्धारित था। जब फसल आती थी तो त्योहार मनाये जाने की स्थितियां पैदा होती थीं। नये कपड़े गहने आदि को खरीदने की क्षमता तभी आती थी। यह वही समय होता था जब नित्य के एकरस भोजन से ऊबा मन स्वादिष्ट ऊर्जायुक्त खाद्य सामग्री खरीद सकता था, खा सकता था, खिला सकता था।

            जैसे जैसे उत्पादन के साधन बदले वैसे वैसे कृषि आदि परंपरागत साधनों पर हमारी निर्भरता कम होती गयी। जमीनों पर कारखाने लगे भवन बने व किसान श्रमिकों में बदलता गया। साल भर तपाने के बाद समुच्य में आने वाली खुशियों के पल छोटे छोटे होकर साल की बारह 'पहली' तारीखों में बंट गये। वेतन वालों को फसल पकने कटने और बिकने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

            कृषि में भी सिंचाई के साधन आये, जल्दी व अधिक फसल देने वाले बीज आये, खाद और खरपतवार व कीटनाशक आये तथा ट्रैक्टर हार्वेंस्टर आदि आये जिनकी मदद से कम समय में अधिक फसलें मिलने लगीं। मंडियों की व्यवस्थाएं सुधरीं जिससे जल्दी ही नहीं, अपितु कभी कभी तो एडवांस भुगतान भी मिलने लगे और इस तरह धन प्रवाह के समय में परिवर्तन हुआ। खुशियों के आने की सामूहिकता भंग हुयी। फसलें महाजनों के दबाव से नहीं अपितु बाजार भाव देख कर अपनी अपनी सुविधाओं से बेची जाने लगीं।

            दूसरी ओर खुशियों की अभिव्यक्ति के प्रतीक तो वे त्योहार बना लिये गये थे जिन्हें पुराण कथाओं से निकाल कर लाया गया था जिस कारण उनकी तिथियां निश्चित थीं। इन तिथियों पर त्योहार मनाते मनाते वे एक आदत का हिस्सा हो गये थे। और आदतें आसानी से नहीं छूटतीं। गांव की अन्य सेवाओं से जुड़े लोग भी किसानों के धनप्रवाह की व्यवस्था पर ही निर्भर थे व उसी के अनुसार त्योहार मनाने के अभ्यस्त हो गये थे पर अब उनके पास भी धन का प्रवाह एक मुश्त होने की जगह क्रमश: होने लगा था। लोग कभी भी नये कपड़े बनवाने लगे थे व बरतन गहने खरीदने लगे थे। सेवा क्षेत्र से जुड़े ये लोग त्योहार तो तिथियों पर ही मनाते पर कर्ज लेकर मनाते और ब्याज देकर किश्तों में चुकाते। त्योहार जिन्दा तो रहे पर उनकी चमक कम हुयी क्योंकि ये आदतों और लोक लिहाज से मनाये जाने लगे। वहां त्योहार तो रह गये  पर खुशियां नहीं हैं केवल एक लकीर पीटना भर है।

            विकास के साथ एक नव धनाडय वर्ग उदित हुआ जिसके पास उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत अधिक पैसा आ गया। उसे खर्च करने के लिये अवसर तलाशे गये, जिसकी पूर्ति में नये नये उत्सव या तो पैदा किये गये, आयात किये गये या भूले बिसरे उत्सवों में नयी जान फूंकी गयी। जन्मदिन मनाने की परम्परा जो बच्चों तक सीमित थी बूढों तक पहुंच गयी। विवाह की वर्षगांठ मनायी जाने लगी। विवाह के पच्चीस साल होने पर सिल्वर जुबली के रूप में पुर्नविवाह  जैसे आयोजन होने लगे। करवा चौथ में भव्यता जुड़ने के साथ साथ वैलन्टाइन डे, मदर्सडे, फादर्सडे, न्यू इयर्स डे आदि भी मनाये गये। पर ये सभी उस उच्चमध्यमवर्ग और उससे ऊपर ही रहे। ये नये त्योहार निम्न आयवर्ग  तक नहीं पहुंच सके।

            निम्नमध्यमवर्ग और निम्नवर्ग सबसे दुखी अवस्था में है जहां एक ओर से उसकी गरदन परंपरागत सामंती समाज की सोच दबोचे हुये है वहीं दूसरी ओर से पूंजीवाद ने दबोच रखी है। धर्मिक आतंक से डराता सामंती सोच उसे परंपरागत ढंग से त्योहार मनाने को विवश किये हुये है तो पूंजीवादी सोच ने उसे मनाये जाने के ढंग बदल कर उसकी पहुंच से दूर कर दिया है। पूंजीवादी व्यवस्था में त्योहार भी आदमी की  व्यक्तिगत खुशी का आयोजन है जिसे उसको अपनी जेब  देख कर ही मनाना चाहिये। त्योहार के लिए वेतन के बदले उसे एडवांस तो मिल सकता है पर भत्ता नहीं। जो एडवांस मिला है वह वेतन से कटेगा। अगर कोई व्यक्ति नहीं मनाता है तो समाज की उंगलियां उठती हैं और मनाने पर महाजन की।

            हम दो युगों के संक्रमणकाल में जी रहे हैं और हमारा चरित्र क्रान्तिकारी नहीं है। ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम (मध्यमवर्गीय) सही समझते हैं किंतु उसे अपनाने का साहस नहीं है। हमारे हाथ नया आसमान छूना चाहते हैं पर हमने अपने ही पांवों में बेड़ियां डाल रखी हैं। हम इस पार से उस पार जाना चाहते हैं पर जा नहीं पाते। शरीर से यहां होते हुये भी मन से वहां हैं। त्योहार फिर आ रहे हैं और हम बिना कोई प्रश्न किये हुये उन्हें मनाने के लिए फिर जुट जायेंगे । नई नई विदेशी कम्पनियों द्वारा उत्पादित सामग्री के विज्ञापन हमें बतायेंगे कि हम अपना त्योहार कैसे मनायें। देश के नामी गिरामी सितारे माडल बन कर हमारी प्रथाओं में महीन परिवर्तन करते चले जायेंगे  जिसे हम स्वीकार करते चले जायेंगें। ये परिवर्तन इतने अधिक हो रहे हैं कि हमारे त्योहारों के स्वरूप ही बदल गये पर हमें कोई शिकायत नहीं हुयी। हमारी दीवाली में गोबर चूने की जगह डिस्टेम्पर आ गये, दीपों की जगह विद्युत झालरों ने ले ली और हम मेहमानों का स्वागत गुझिया पपड़िया की जगह कोका कोला से करने लगे। उत्तर भारत में चौराहों पर बड़े बड़े पंडाल लगाकर दानवाकार मूर्तियों की स्थापना कर इस्लामिक संस्कृति की तरह सामूहिक पूजा प्रार्थना ने कब प्रवेश कर अपनी पक्की जगह बना ली हमें पता ही नहीं चला। आज क्या मजाल हैं कि मुहल्ला स्तरीय नेतृत्व विकसित करने के अभियान में चंदाखोर बाहुबलियों के आगे कोई ये कह सके कि इसका हमारी परंपरा से कुछ भी लेना देना नहीं है क्योंकि हमारी पूजा अर्चना विधिवत स्थापित देवालयों में व्यक्तिगत ही होती रही है। यह सोची समझी नीति है जो आज गरवा के आयोजनों का काम बड़ी बड़ी कम्पनियां करवा रही हैं।

            पता नही हम अपनी संस्कृति स्वयं निर्मित करने और उस पर अमल करने लायक स्वतंत्रता कब पा सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अक्टूबर 27, 2012

गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है


                 गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है
                                                                                                                         वीरेन्द्र जैन
      जब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह गत एक वर्ष से लगातार यह सवाल पूछ रहे थे कि गडकरीजी के पास इतना पैसा कहाँ से आया तो दुर्भाग्य से न तो मीडिया और न ही प्रशासन इसे गम्भीरता से ले रहा था। उनके इस बयान को केवल एक राजनीतिक बयान मान कर हाशिए पर कर दिया गया था, जबकि सच्ची बात तो यह है दिग्विजय सिंह के पिछले सारे बयान तथ्यात्मक और गम्भीर प्रकृति के रहे हैं, जो बाद में सच साबित हुए हैं। संघ परिवार तो उनके बयानों से इतना भयग्रस्त रहता है कि उसने तो कभी भी उन पर गम्भीर प्रतिक्रिया नहीं की, अपितु छिछले तरीके से उन्हें हास्यास्पद बता गाली गलौज कर उनसे बचने की कोशिश की। सोशल मीडिया के प्रमाण बताते हैं कि संघ परिवार ने ऐसे लोगों की एक बड़ी टीम बना रखी है जो सैकड़ों छद्म नामों से उन सभी महत्वपूर्ण लेखकों, पत्रकारों, व राजनेताओं को गाली गलौज करके हतोत्साहित करने, और उनकी छवि खराब करने की कोशिश करते रहते हैं, जो संघ परिवार के कार्यों की समीक्षा करते हैं। आज जब सच्चाइयां सामने आ रही हैं तब ये भी जरूरी है कि सोशल मीडिया में ऐसे छद्मनाम धारी खाते खोलने वालों की न केवल तलाश की जाये अपितु उनके इस अपराध के उद्देश्य के बारे में गहन पूछ्ताछ की जाये ताकि समाज में साम्प्रदायिकता के बीज बोकर देश की दिशा को गलत रास्ते पर ले जाने के षड़यंत्र का पर्दाफाश हो सके। उल्लेखनीय है कि अपने सारे साम्प्रदायिक हिंसक कारनामों, उनके खुलासों, अदालत की टिप्पणियों, आयोगों की रिपोर्टों के बाद भी नरेन्द्र मोदी गुजरात में लोकप्रियता इसलिए बनाये हुए हैं क्योंकि अपने झूठ के सहारे संघ परिवार ने समाज के एक हिस्से में साम्प्रदायिकता की जड़ें गहरी कर दी हैं, और यह काम एक दिन में नहीं हुआ है। प्रतिक्रिया में मुस्लिम और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों ने भी अपने अपने राजनीतिक दल बनाने शुरू कर दिये हैं जिनका असर केरल और असम में प्रत्यक्ष दिखने लगा है। इसलिए जरूरी है कि साम्प्रदायिकता से मुकाबले का काम भी उसी निरंतरता और सक्रियता से किया जाये जितनी निरंतरता और सक्रियता से साम्प्रदायिक बीज बोये जा रहे हैं। खेद की बात है कि सत्तारूढ यूपीए में सम्मलित दलों में दिग्विजय जैसे दूरदर्शी लोग अल्पसंख्यक हो गये हैं।
     
      इस बात का अब शायद ही किसी को सन्देह हो कि भाजपा संघ का ही एक सहायक संगठन है और उसकी सारी प्रमुख नीतियां व सांगठनिक निर्णय संघ द्वारा ही लिए जाते हैं जिन्हें लागू करना भाजपा के लिए जरूरी होता है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी के चयन के प्रति जब भाजपा के अन्दर कोई कल्पना तक नहीं कर रहा था तब संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष के रूप में लाद दिया गया था। उनके इस चयन के प्रति न केवल पूरा मीडिया अपितु स्वयं भाजपा के बड़े बड़े नेताओं के मुँह खुले रह गये थे। स्मरणीय है कि उन दिनों जब संघ प्रमुख से भाजपा के अगले अध्यक्ष के बारे में पूछा गया था तब उन्होंने कहा था कि दिल्ली के गेंग डी फोर, अर्थात वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, और अनंत कुमार में से कोई नहीं। बाद में हुआ भी ऐसा ही और एक फासिस्ट संगठन ने पूरी भाजपा पर गडकरी को थोप दिया था। इतना ही नहीं गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए संविधान में संशोधन भी उन्हीं के निर्देश पर किया गया जिसका मूल लक्ष्य गडकरी को दुबारा अध्यक्ष पद पर पदारूढ करना रहा था।

      संघ की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे श्री गडकरी के कार्यकलापों से अनभिज्ञ रहे होंगे या बाद में दिग्विजय सिंह जैसे संघ विरोधी नेताओं द्वारा सवाल उठाये जाने पर जिज्ञासाएं न पैदा हुयी हों, किंतु उन्होंने सब कुछ जानते हुए भी न केवल गडकरी को भाजपा पर थोपा अपितु दूसरे कार्यकाल के लिए भी रास्ता बनवाया। सच तो यह है कि गडकरी का कार्यकाल किसी भी पूर्व अध्यक्ष से अधिक अच्छा नहीं रहा था जिन्हें ऐसी विशेष सुविधा मिली हो। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पहले से अच्छा परिणाम देने के बाद भी जब कान्ग्रेस के अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम नहीं आये तो उस जिम्मेवारी का अहसास राहुल गाँधी समेत कांग्रेस के जिम्मेवार नेताओं पर देखा जा सकता था, किंतु वोटों और सीटों के मामले में पहले से पिछड़ने के बाद भी भाजपा के लोगों के समक्ष गडकरी के चेहरे पर कोई शर्म नहीं थी क्योंकि उनका भविष्य पार्टी नहीं अपितु संघ द्वारा तय किया जाना था और जब तक संघ उन्हें चाहता तब तक वे किसी की परवाह नहीं करना चाह्ते। उनके कार्यकाल में हुए विधानसभा चुनावों में गोआ जैसे छोटे राज्य को छोड़ कर कहीं भी सफलता नहीं मिली। अपनी अध्यक्षता के बाद पहली रैली के दौरान ही वे चक्कर खाकर बेहोश हो गये थे जिन्हें संयोग से वयोवृद्ध अडवाणीजी के कन्धों का सहारा मिल गया अन्यथा कोई बड़ी घटना भी सम्भावित थी। इसी दौरान उन्होंने अपने शरीर की चर्बी कम कराने के लिए शल्य चिकित्सा करायी। जब पूरा देश गम्भीर राजनीतिक गतिविधियों से उद्वेलित था तब मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष गडकरीजी अपने परिवार के साथ विदेश भ्रमण के लिए चले गये। राज्य सभा के चुनावों में उन्होंने जिस तरह से अपने धनी मित्रों को टिकिट दिये उससे पार्टी में ही विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गयी और झारखण्ड में अपने सबसे मुखर नेता श्री आहलूवालिया को नहीं जिता सके। अध्य्क्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से पार्टी को ठुकराने वाले नेताओं पर कृपादृष्टि करने का अहसान प्रदर्शित करना चाहा था उसके उत्तर में उन्हें कभी पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले गोबिन्दाचार्य से जो अपशब्द सुन कर मौन रह जाना पड़ा था वैसा व्यवहार उन जैसा  स्वाभिमानहीन व्यक्ति ही कर सकता है। उनकी कार में मृत पायी गयी लड़की की घटना हो या उनके बेटों की शादी में दौलत के शर्मनाक प्रदर्शन का मामला हो, शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार से उनके व्यापारिक सम्बन्धों का मामला हो, संघ ने कभी भी कोई आपत्ति प्रकट नहीं की। कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी पिछली बैठक में संघ ने उन्हें गडकरी के एक और कार्यकाल के लिए मनाने की कोशिश की थी और शायद उसमें सफल भी हो गये थे।
      स्मरणीय है कि अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पैट्रोल पम्प और गैस एजेंसियों के आवंटन में संघ के लोगों के हित में जो पक्षपात किया गया था और अटलबिहारी वाजपेयी ने जिस पर अपना त्यागपत्र देने की पेशकश तक कर दी थी, उससे संघ की शुचिता पर सन्देह के दाग लग चुके हैं। गडकरी के कारनामों के खुलासों और संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष बनाने व बनाये रखने की कोशिशों से ये सन्देह फिर से उभर आये हैं। ऐसे आचरणों की निरंतरता से आश्चर्य नहीं कि भविष्य में जब भ्रष्ट जननायकों की सूची और फोटो प्रकाशित हों तो उनमें संघ के पदाधिकारिय़ों के नाम भी सम्मलित दिखाई दें। गडकरी के खिलाफ साबित होने वाले किसी भी आरोप से संघ को मुक्त नहीं माना जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शनिवार, अक्टूबर 20, 2012

सड़क पर धर्म


सड़क पर धर्म
वीरेन्द्र जैन

     एक समय था जब लोग धर्म के लिए धार्मिक स्थलों और धर्म के पालकों व प्रचारकों  के पास स्वयं जाते थे, किंतु प्रत्येक धर्म में उसके जन्म के एक निश्चित समय के बाद पाखंड और जड़ता घर करती जाती है तथा धर्म के बारे में बिना प्रश्न किये विश्वास करने की परंपरा के कारण कुछ निहित स्वार्थ अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं। यही कारण होता है कि निश्चित समय खण्ड (युग) के बाद एक प्रवर्तक नया धर्म प्रारम्भ करता है। दो धर्मों के संधि काल में धर्म प्रचारकों के हित में लगी हुयी ताकतों के भय से व्यक्ति अपनी शंकायें और असहमतियां तो प्रकट नहीं कर पाता किंतु वह उस युग के तथाकथित धार्मिक स्थलों और व्यक्तियों से बचने लगता है।

इस दौर में अपने कमजोर होते अस्तित्व को बचाने के लिए अब धर्म स्वयं ही सड़क पर उतर आने को मजबूर हो गया है व तथा कथित धर्म प्रचारक अपने आश्रमों को छोड़ छोड़ कर नगर नगर घूमते फिरने लगे हैं। उनका यह कहना कि वे अपने शिष्यों के विशेष आग्रह पर पधारे हैं लगभग ऐसा ही होता है जैसे कोई सिनेमा हाल वाला लाउडस्पीकर से प्रचारित करवाता है कि जनता की जबरदस्त मांग पर फलां फलां फिल्म लग गई है। यह किसी को भी नहीं पता कि जनता ने कब किससे कहाँ पर यह जबरदस्त मांग की हुयी होती है।

     आज धर्म का मंदिरों मस्जिदों आश्रमों में दम घुटने लगा है इसलिए वह खुली हवा में सड़क पर पसरने लगा है जहाँ रास्ते से गुजरने वालों को अपने भक्तों में शामिल  दिखा कर वह चैन की साँस ले पाता है। सड़कों पर आने के कारण रास्ते संकरे हो जाते हैं व संकरे रास्तों पर फंसने के लिए विवश लोगों को कुछ क्षणों के लिए वहाँ रूकना ही पड़ता है। यह लगभग ऐसा ही है जैसे त्योहारों के अवसरों पर दुकानदार अपनी दुकान से बाहर निकल कर सड़क पर पसर जाते हैं ताकि ग्राहक आगे न बढ सके। यद्यपि इससे लोग असुविधा महसूस करते हैं किंतु धर्म के व्यवसायियों के झूठ से जुट जाने वाली विवेकहीनों की हिंसक भीड़ से भयभीत लोग अपनी असुविधाओं को चुपचाप झेल जाते हैं।

हमारी बहुचर्चित सहिष्णुता के सच्चे दर्शन यहीं होते हैं।

     सड़कों पर गणेश प्रतिमाओं के पंडाल लगाकर स्वतंत्रता आन्दोलन में जातिपांत विहीन जन समर्थन जुटाने के प्रयास का सफल प्रयोग लोकमान्य तिलक ने किया था जिसे उद्देश्य की महत्ता के कारण हम अब तक प्रशंसा के भाव से याद करते हैं। किंतु एक सुनिश्चित राजनीतिक लक्ष्य के लिए प्रारंभ किया गया यह अभियान आज परंपरा बन गया है व धार्मिक अनुष्ठान समझा व बताया जा रहा है। सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति भी इसका गलत उपयोग करने लगी है तथा अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन पंडालों के बीच आपस में व्यापारिक प्रतियोगिताएं भी होने लगी हैं। वे एक दूसरे से बड़ी मूर्ति लाकर व अधिक सुशोभित जगमगाहट भरा पंडाल सजाकर व्यावसायिक द्वेष से काम करने लगे हैं। इनके इस तमाशे के लिए स्वाभाविक रूप से धन नहीं जुटता इसलिए इसे जुटाने के लिए क्षेत्र के बाहुवलियों या छुटभइये राजनेताओं की सेवाएं जुटायी जाती हैं। ये लोग सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करने के अभ्यस्त लोग होते हैं इसलिए दबाव बनाकर खर्च से बहुत अधिक धन जुटाया जाता है व इस शेष धन का उपयोग अधार्मिक कार्यों में ही किया जाता है। इस दौरान स्थायी धर्मस्थलों में जाने वाले लोग वहां नहीं जा पाते व उन धर्मस्थलों में चढायी जाने वाली दान की राशि में गतिरोध आ जाता है।

     सड़क पर उतर आये इस धर्म में भक्त नहीं, भीड़ जुटायी जाती है जिसके लिए तरह तरह की आकर्षक झाकियाँ सजायी जाती हैं जिनके प्रति बच्चे उत्सुक होते हैं व उन बच्चों के कारण उनके मातापिता को भी आना पड़ता है। यह सारा कृत्य धार्मिक आस्था का प्रमाण नहीं है अपितु ताकतवरों द्वारा धर्मभीरूओं को बरगलाने या ब्लैकमेल करने का ढंग है। वे भीड़ को बढाने के लिए प्रसाद भी वितरित करते हैं तथा भंडारा भी करते हैं। भीड़ से भीड़ बढने के सिद्धांत के अनुसार अधिकतर पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर प्रचलित सुगम संगीत फूहड़ मनोरंजन से लेकर हाउजी नामक जुआ भी चलाया जाता है। दान की रसीदों की लाटरी निकाली जाती है व दानदाताओं के नाम बार बार पुकार कर दूसरों को प्रोत्साहित करने का खेल चलता है।

     आज से दो दशक पूर्व तक नवरात्रि के अवसर पर केवल बंगालियों के मुहल्ले में ही दुर्गा झांकी सजायी जाती थी किंतु गणेश पंडालों से जनित आय से उत्साहित लोग इस में भी उसी लक्ष्य व उत्साह से कूद पड़े और व्यवसाय के सारे नियम कायदे इस पर लागू कर दिये। अब जहां जितना बड़ा बाजार होता है वहाँ की झांकी भी उतनी ही बड़ी होती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन झांकियों की भव्यता का अनुपात भक्ति से नहीं अपितु बाजार से सही बैठता है। बच्चों के खिलौने गृहस्थी के सामान चाटपकौड़ी और झूले आदि में लपेट कर तथाकथित धर्म भी निगल लिया जाता है। इन दिनों त्योहारों का अर्थ बाजार से खरीददारी हो गया है। इन आयोजनों में भजन संगीत के टेप चलाये जाते हैं जिससे कभी धर्म से जुड़ी गायन और संगीत की शिक्षा का अभ्यास नहीं हो पाता। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए भी बाहर से संगीत पार्टियां बुला ली जाती हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के अवसर ही नहीं मिल पाते। 

      कभी देवी देवताओं के स्थल ऊंची कठिन पहाड़ियों पर बनाये जाते थे तथा वहां पहुंचने का कष्टसाध्य श्रम ही व्यक्ति की भावनात्मक गहराई को प्रकट करता था। आज वे स्थल वीरान पड़े रहते हैं तथा व्यकित की दान देने की क्षमता को सड़क पर उतर आये तमाशों द्वारा बटोर लिए जाने के कारण वे आर्थिक तंगी झेलते हुये मरम्मत के अभाव में नष्ट हो रहे हैं। बाजार से जुड़ा सड़क वाला नया धर्म  पुराने धर्म को निगलता जा रहा है। लगभग ऐसा ही हाल प्रवचनकारी संतों का है जिनके प्रवचनों के आयोजनों हेतु करोड़ों का बजट बनता है पर उनके प्रवचनों का समाज पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। ये प्रवचनकारी स्वयं तो किसी फिल्म स्टार वाली पारिश्रमिक राशि लेते ही लेते हैं  तथा अपने साथ पूरा बाजार भी साथ लिए फिरते हैं। उनकी पब्लिीसिटी का खर्च भी कई कई लाख का होता है।

     सच तो यह है कि यह 'मेटामारफोसिस' एक मरते हुये उद्योगपति के मेकअप की तरह है जिसके शेयरों के रेट बनाये रखने के लिए उसे स्वस्थ और जीवित बताया जा रहा हो। बढते वैज्ञानिक युग में वैश्वीकरण के दौर में डूबते धर्म की रक्षा के प्रयास और और तेज होंगे जो आक्रामक भी हो सकते हैं क्योंकि कहा गया है कि ' सम टाइम्स अटैक इज दि बैस्ट वे आफ डिफैंस'। सच तो यह है कि आज धर्म के उदात्त, करुणामयी, और सबजन हिताय पक्ष को पुनर्जीवित करने, और इन मज़मेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्टूबर 11, 2012

केजरीवाल के लिए चुनव क्षेत्र और उम्मीदवार तैयार करते अन्ना हजारे


केजरीवाल के लिए चुनाव क्षेत्र और उम्मीदवार तय करते अन्ना हजारे
वीरेन्द्र जैन
      अब यह लगभग पुष्ट हो चुका है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन के पीछे मुख्य सूत्रधार अरविन्द केजरीवाल थे जिन्होंने एक साफ सुथरे चेहरे या कहें कि मुखौटे के रूप में अन्ना हजारे को आगे किया था। परिस्तिथियां ऐसी थीं कि उन्हें पूरे देश में कोई भी चर्चित आदर्श राष्ट्रीय चेहरा नजर नहीं आया इसलिए उन्हें एक क्षेत्रीय चेहरे को राष्ट्रीय चेहरा बनाना पड़ा। इस आन्दोलन का चेहरा बनने से पहले महाराष्ट्र में अपने अनशनों से ध्यान आकर्षित करने के बाद भी अन्ना हजारे की अखिल भरतीय छवि निर्मित नहीं हुयी थी और न ही उनकी सोच इतनी व्यापक थी कि राष्ट्रीय नेतृत्व करने की पात्रता पाने के लिए वे समस्याओं और उनके निराकरण के बारे में समग्रता से सोच कर कोई हल देने का प्रयास करते। उनकी क्षमता केवल इतनी थी कि वे अपनी सीमित मांगों के लिए अपेक्षाकृत लम्बे समय तक अनशन पर बैठ सकते थे, जबकि जनता को अपेक्षा रहती है किसी भी आन्दोलन का राष्ट्रीय नेतृत्व सम्बन्धित समस्या को सभी कोणों से समझ कर आन्दोलन को गति दे। यही कारण रहा कि एक बार भड़कने के बाद इस आन्दोलन का लगातार क्षरण होता रहा। स्वामी अग्निवेष, संतोष हेगेड़े, सन्दीप पाण्डे, कुमार विश्वास,  अरुन्धति राय, मेधा पाटकर, से लेकर किरण बेदी ही नहीं खुद अन्ना हजारे को भी अपना मार्ग अलग घोषित करना पड़ा।
      आन्दोलन की बिडम्बना यह रही कि इसने एक ओर तो इसी संसदीय लोकतंत्र में पूर्ण विश्वास घोषित किया और वहीं दूसरी ओर इसी व्यवस्था से निर्वाचित संसद को चोर उचक्कों और अपराधिओं का अड्डा बताते रहे। यद्यपि कुल संसद सदस्यों का कुछ प्रतिशत इन आरोपों से घिरा हुआ है तो भी उन्हें इसी व्यवस्था के अंतर्गत मतदाताओं ने चुन कर भेजा है और इस संविधान में भरोसा करने वाले लोगों को उन्हें स्वीकारना ही पड़ता है व उसी में से राह खोजना पड़ती है। जब पूरा देश इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास के कारण गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लगातार सहन करती आ रहा है, मधु कौड़ा को निर्दलीय विधायक होने के बाद भी झारखण्ड के मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया था, और राबड़ी देवी के नेतृत्व में बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य की सरकार को सहन किया तब एक ओर इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास घोषित करते हुए व दूसरी ओर  कुल संसद की निन्दा करना परोक्ष में उस जनता को गाली देना है जिसने उनको चुन कर संसद में भेजा है। इस बिडम्बना को सामने आने में बहुत देर नहीं लगी और अन्ना व अरविन्द को अपने अपने रास्ते अलग अलग करने पड़े। अरविन्द केजरीवाल ने राजनीतिक दल के गठन की घोषणा और चुनावों में भागीदारी पर सहमति के साथ लोकतंत्र की इसी प्रणाली को स्वीकार करने की घोषणा कर दी थी वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे ने राजनीतिक दल के गठन से असहमति व्यक्त करते हुए केवल आन्दोलन का सहारा लेने की घोषणा करके अपनी असहमति को सार्वजनिक कर दिया था। इस विभाजन ने मुख और मुखौटे का भेद प्रकट कर दिया था। इससे यह भी साफ हो गया कि अन्ना का मुखौटा लगाते समय या तो केजरीवाल के पास कोई दूरदृष्टि नहीं थी या उन्होंने सच को छुपा, अन्ना को आगे कर अपना लक्ष्य प्राप्त करने का खेल खेला। कहा जा रहा है कि अब अन्ना टीम के आन्दोलन का संचालन किरण बेदी के हाथों में होगा किंतु इसी समय अन्ना ने यह भी घोषित कर दिया है कि वे अब इस आन्दोलन के लिए अनशन का सहारा नहीं लेंगे। सवाल उठता है कि एक तेज तर्रार पुलिस अधिकारी रही देश के पहली महिला आईपीएस के रूप में विख्यात और इसी कारण बहुचर्चित किरण बेदी अनशन की जगह आन्दोलन का क्या तरीका अपनायेंगीं?
      बिडम्बना यह भी है कि अन्ना हजारे उन बाबा रामदेव से गलबहियां कर रहे हैं जो खुद अपने दल को चुनाव में उतारना चाहते रहे हैं और जिनके द्वारा बहुत ही अल्प समय में अकूत धन सम्पत्ति जोड़ी गयी है जिस कारण से विभिन्न तरह के कर वसूलने वाली एजेंसियां उन पर वे ही आरोप लगा रही हैं जिनके खिलाफ अन्ना आन्दोलन चलाने का रास्ता अपनाये हुए हैं। यही बाबा रामदेव पिछले दिनों सार्वजनिक मंच से नरेन्द्र मोदी की भूरि भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। ध्यान देने योग्य यह भी है कि अपनी जन्मतिथि के कारण विवादों में रहे पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह बाबा रामदेव के साथ अपना भविष्य जोड़ने में लगे हुए हैं।
      अरविन्द केजरीवाल से मतभेद सामने आने के बाद अन्ना ने अपना मार्ग अलग करते हुए कहा था कि वे न तो अपना फोटो ही इस्तेमाल करने देंगे और न ही किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार करेंगे, पर अब उन्होंने कह दिया है कि अगर अरविन्द केजरीवाल कपिल सिब्बल के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं तो वे उनका प्रचार करेंगे। इसका अर्थ है कि अब अन्ना न केवल उम्मीदवार तय कर रहे हैं अपितु चुनाव क्षेत्र भी निर्धारित कर रहे हैं। यदि ऐसा है तो ये अन्ना को बधाई मिलनी चाहिए कि वे थोड़ी सी न नुकर करने के बाद राजनीति में उतर आये हैं और इसी संसदीय लोकतंत्र में समस्याओं के हल तलाशना चाहते हैं। लगता है कि उनके जो रस्ते केजरीवाल से अलग हो गये थे वे जुड़ने लगे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्टूबर 03, 2012

धार्मिक जडताओं से मुक्ति ही धर्म को बचा सकती है


धार्मिक जडताओं से मुक्ति ही धर्म को बचा सकती है
                                                      वीरेन्द्र जैन

      धार्मिक क्षेत्र में इन दिनों बडा हडक़म्प मचा हुआ है। बदले हुये समय में जो चीजें सामने आ रही हैं, उन्होंने धर्मों के उन हवा महलों को धाराशायी कर दिया है जिनका आधार कुछ कल्पनाओं पर टिका हुआ था। विज्ञान की उपलव्धियों ने जिस यथार्थ को सामने रखा है उसकी धूप ने धर्मों द्वारा पैदा की गयी धुंध को छांटने का काम शुरू कर दिया है। इस धुंध से लाभ उठा कर जो लोग अपना हित साधते आ रहे थे उनकी पोल पट्टी खुल जाने से वे परेशानी महसूस कर रहे हैं।

            किसी जमाने में चेचक का बड़ा धार्मिक कारोबार चला करता था पर जब से देश में चेचक का उन्मूलन हुआ है तब से इस धन्धे का भी उन्मूलन हो गया  है। मेरा एक मित्र बतलाता है कि चेचक उन्मूलन के बाद देश में नया कोई भी शीतला माता का मन्दिर स्थापित नहीं हुआ है। वह मजाक में कहता है कि बेरोजगार युवकों को अब चिकनगुनिया माता का कोई्र मन्दिर बना लेना चाहिये। कभी सुप्रसिद्ध लेखक ख्वाजा अहमद अव्बास ने पाकिस्तान के इस्लामी कानून के बारे में  लिखा था कि डाक्टरों ने वहां अजीब समस्या खड़ी कर दी है। शरीयत कानून के अनुसार चोरी करने वाले के हाथ काटने का प्रावधान है पर डाक्टर कहते हैं कि तुम काट दो पर हम जोड़ दैंगे। जिन दिनों शरीयत कानून अस्तित्व में आया था तब शल्य चिकित्सा का ऐसा विकास नहीं हुआ था, पर अब हो गया है। कथित धार्मिक नियम अपने समय और क्षेत्र के सामाजिक नियम कानून रहे हैं और कोई भी कानून अपने समय की सामाजिक नैतिकताओं और उनको तोड़ने की घटनाओं के अनुसार ही बनता है और उसके अनुरूप ही उसे बदलते रहना चाहिये। कुछ लोग उन कानूनों से अतिरिक्त लाभ उठाते रहते हैं इसलिये वे उसमें परिवर्तन नहीं होने देना चाहते। ये जड़ता ही समाज में टकराव पैदा करवाती है। पर लाभान्वित होने वाला वर्ग सामाजिक कानूनों को धर्म से जोड़ देता है जिससे धर्मों में अन्धी आस्था रखने वाला एक वर्ग विभूचन की हालत में आ जाता है। उसे न्याय भले ही सामने दिखाई दे रहा हो पर सैकड़ों सालों पूर्व बनाये गये नियमों में उसकी आस्था चुपचाप अन्याय होने देती है। वह या तो चुप रहता है या जानबूझ कर कुतर्क करके हास्यास्पद होता हुआ झुंझलाता रहता है।

            बदलता समय और वैज्ञानिक शिक्षा ,धार्मिक परिकल्पनाओं के प्रति संदेह पैदा करती हैं जिसका सामना करने के लिये निरन्तर विश्वास खोता हुआ धर्म झूठे चमत्कार पैदा करने के भोंड़े प्रयास करता रहता है। यह महज संयोग नहीं है कि एक सुनिश्चित समय में ही समुन्दर का पानी मीठा होने लगे, गणेशजी आदि दूध पीने लगें, मदर मेरी की आंखों से पानी निकलने लगे, पुराने भवनों की काई लगी दीवारों पर बन गयी आकृति सांई बाबा से मेल खाने लगे, कोई अध्यापक ईशु के दर्शन कराने लगे, जैन मन्दिरों के भवनों और मूर्तियों से बूंदें टपकने लगें, बुद्ध का अवतार पैदा हो जाये,। असल में ये सारे चमत्कार तेजी से डूब रहे धर्म को थोड़ा और जीवन देने की  फूहड़ कोशिश भर हैं। यह वही समय है जब एक जैन साध्वी अपने ओढे हुये ब्रम्हचरित्व को छोड़ कर  अपने प्रेमी के साथ भाग गयी होती है, इमराना के मामले में शरीयत कानून के आधार पर फैसला देने वालों  के खिलाफ चुप रहने को विवश  पढे लिखे मुसलमान शर्म के मारे मरे जा रहे होते हैं, गुड़िया के फैसले ने मौलानाओं के विवेक पर प्रश्चिन्ह खड़े कर दिये हों, शंकराचार्य बलात्कार, हत्या व धार्मिक संस्थानों के कोष का दुरूपयोग करने के आरोपों में गिरफ्तार हो रहे हों, प्रतिदिन किसी न किसी आश्रम या मठ के मठाधीश के यहां छापा पडने पर अश्लील सीडी ,हथियार, व फरार अपराधी पकड़े जा रहे हों, इमामबुखारी जैसे मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार शबानाआजमी जैसी सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता व उत्कृष्ट कलाकार के बौद्धिक तर्कों का उत्तर उन्हें नाचने गाने वाली बता कर दे रहे हों तब ऐसे में धार्मिक संस्थाओं और उन पर अधिकार किये हुये धार्मिक चोगाधारियों में अन्धआस्था रखने वालों का विवेक संदिग्ध हो जाता है। सूचना तकनीक से लैस नई पीड़ी विवेकशून्य नहीं हो सकती इसलिये धर्मों का धन्धा करने वाले अपने अभियानों में चमक दमक रंगीनियां व मनोरंजन को अधिक से अधिक स्थान देने लगे हैं। कभी जो धर्म सादगी और नैसर्गिक सौन्दर्य से जुड़ा रहता था वह अब बनावटों का भन्डारगृह हो रहे हैं। प्रवचनकारों के कार्यालयों में मैटर तैयार करने के लिये पचासों लोग वेतन पर कार्यरत रहते हैं और आयोजनों से पूर्व सेविकाएं सौन्दर्य प्रसाधनों की आवश्यकताएं महसूस करने लगी हैं।

            प्रत्येक धर्म मानवता के हित में ही प्रारम्भ हुआ है व उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ ज्ञान को जगतहित में लगाया होता है। पर समय और परिवेश स्थिर नहीं होता । बदलती परिस्थितियों के साथ सम्बन्धित धर्म की समीक्षा होनी चाहिये, और होती भी रही है किंतु इस बीच में एक ऐसा वर्ग पैदा हो जाता है जो अपने स्वार्थों के कारण धर्म को अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ही बनाये रखना चाहता है। यह जड़ता ही समस्याएं पैदा करती है जिससे क्रमश: धर्म संस्था विभाजन की और बढती है । आज इसी विभाजन के परिणामस्वरूप सैकड़ों की संख्या में धर्म पैदा हो गये हैं जो सभी धर्मों के सिद्धांतों में प्रथम स्थान रखने वाले सत्य की ही हत्या करते हैं।

            जो लोग धर्म को बचाये रखना चाहते हैं उन्हैं इसे जड़ता से मुक्त करना होगा । स्वतंत्रताओं की ओर दौड़ लगाती इस दुनिया को अधिक दिनों तक विवेकहीन धार्मिक परतंत्रता में बांध कर नहीं रखा जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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