शनिवार, मार्च 17, 2012

राजनीति को लम्पट युवाओं से बचाना जरूरी


राजनीति को लम्पट युवाओं से बचाना जरूरी

वीरेन्द्र जैन   
                पिछले दिनों हुए पाँच विधानसभा चुनावों में से उत्तर प्रदेश के चुनावों का अपना एक अलग महत्व है।  यह महत्व केवल इसलिए ही नहीं है कि वह देश का सबसे बड़ा राज्य है, अपितु इसलिए भी है कि इसमें चुनाव परिणामों के प्रति जो भी कयास लगाये जा रहे थे, या प्रीपोल सर्वेक्षण थे जिसमें गठबन्धन को अवश्यम्भावी बताया जा रहा था, उन सब को झुठलाते हुए मतदाताओं ने एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया जिसका नेतृत्व एक युवा के हाथों में दिया गया है। उल्लेखनीय है कि इन चुनावों में दो करोड़ युवा मतदाता नये जुड़े थे और राज्य के चतुष्कोणीय चुनाव में पुराने मूल्यों में विश्वास रखने वाली भाजपा को छोड़ कर शेष तीन पार्टियों का नेतृत्व भी युवा नेताओं के पास था। यही कारण है कि मतदान में हुयी तीव्र बढोत्तरी के बाबजूद भाजपा के मतों में दो प्रतिशत की कमी आयी है और उसकी सीटें ग्यारह प्रतिशत घट गयी हैं।
      इस नये दौर में यह तय लग रहा है कि भारतीय राजनीति में अगला युग युवाओं का ही होगा, किंतु मुख्यधारा की राजनीति में जो युवा आ रहा है क्या वह इतना विश्वसनीय है कि उसके हाथों में लोकतंत्र की बागडोर सौंपी जा सके? उत्तर प्रदेश के नये युवा मुख्यमंत्री अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में जो दृष्य उपस्थित हुआ वह बहुत आशाएं नहीं जगाता। मुख्यमंत्री के समर्थन में आये युवाओं ने न केवल शपथ ग्रहण के मंच पर ही कब्जा कर लिया, शपथ ग्रहण की मेज को तोड़ दिया, डायस को गिरा दिया अपितु सजावट के लिए लगाये गये फूल पत्तियों को नोंच कर फेंक दिया। वे चयनित मंत्रियों की कुर्सियों पर बैठ गये और बार बार अपीलें करने के बाद भी नहीं उठे। नई सरकार को उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की घोषणा करनी पड़ी है। चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद इस प्रदेश के विभिन्न नगरों में निकाले गये विजय जलूसों में जिस तरह की उद्दंडताका प्रदर्शन हुआ उसमें गोली लगने से एक बच्चे की मौत तक हो गयी, और पूरे प्रदेश में गुण्डागिर्दी का भय व्याप्त हो गया। इन जलूसों में ऐसा लग रहा था जैसे लोकतांत्रिक चुनाव न जीता हो अपितु किसी राजा के सैनिकों ने युद्ध जीता हो और वे विजित देश को लूटने के लिए निकल पड़े हों। असल में यह उस पूरी राजनीतिक संस्कृति में विकसित हो गया दोष है जो कुछ अपवादों को छोड़ कर समस्त मुख्य धारा के दलों में व्याप्त हो गयी है।
      इन दिनों सक्रिय राजनीति में जो युवा जुड़ रहे हैं उनमें से अधिकांश उस आर्थिक वर्ग से आ रहे हैं जो अपनी विरासत के कारण बिना कुछ परिश्रम के समस्त सुविधाओं वाला जीवन जीने के प्रति आश्वस्त हैं और शौकिया राजनीति उनके लिए अपनी पहचान स्थापित करने, सत्ता हथियाने, अपने अहं को तुष्ट करने, विरोधियों को नीचा दिखाने, ऐयाशी से भरा जीवन जीने, सरकारी मशीनरी को गुलाम बनाने, व अपने परिवार के व्यापारिक औद्योगिक हितों को सुरक्षित रखते हुए सरकारी अनुदानों व दूसरे लाभों को अपने हित में हस्तगत करने के लिए है। इस युवा की दृष्टि न तो व्यापक है और न ही सब जन सुखाय वाली है। वह जनता का, जनता के द्वारा जनता के लिए सिद्धांत वाले शासन को अपने निजी हितों में उपयोग करना चाहता है। पिछड़े वर्ग की जो जातियां कभी अपने सवर्ण आकाओं के लिए लठैती करती रही थीं वही मण्डल कमीशन के बाद सत्ता के स्वाद और सुखों से परिचित हुयीं और उन्होंने दूसरों को सत्ता दिलाने के लिए अपना खून पसीना बहाने की जगह अपनी ऊर्जा का स्तेमाल खुद की  सत्ता पाने के लिए लगाना शुरू कर दिया। आज इन युवाओं के पास बड़े बड़े क्रैशर हैं, ट्रक हैं, डम्पर हैं, गाड़ियां हैं, ताकत से हथियाये ठेके हैं और भ्रष्ट अधिकारियों से अपने पक्ष में काम कराने के लिए धन है व राजनेताओं के लिए समर्थकों की भीड़ है। कुल मिला कर युवाओं का एक बड़ा लम्पट वर्ग राजनीतिक दलों में प्रवेश कर चुका है जो मूल्य विहीन समर्थन के लिए लालायित नेताओं पर दबाव बना सकने में सक्षम है। राजनीतिक सोच विहीन यह वर्ग सत्ता से जुड़ी किसी भी पार्टी या नेता के पास जा सकता है क्योंकि इसकी न तो कोई विचारधारा है और न ही कोई प्रतिबद्धता ही है। भाजपा जैसी कभी अनुशासित रही पार्टी में भी विभिन्न आर्थिक सामाजिक  अपराधों व अनैतिकताओं से जुड़े युवा  अपराधी आये दिन पकड़े जा रहे हैं।  
      इस लम्पट युवा वर्ग के उदय के पीछे राजनेताओं की मूल्यहीनता का भी बड़ा हाथ है। जो राजनेता किसी भी तरह चुनाव जीत कर सत्ता सुखों के लालच में वोटों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं वे ही इनके सारे सही गलत कामों में पक्ष लेकर उन्हें भी मूल्यहीन बनाते रहते हैं। दूसरा दोष हमारी न्याय प्रणाली का है जो सामाजिक आर्थिक अपराधों में दण्ड नहीं दे पाती व समाज में विचरण करते रहने वाले अपराधी युवाओं को गलत रास्ता चुनने को विवश कर देते हैं। लम्पट युवाओं की दिन प्रति दिन बढती फौज किसी न किसी राजनेता के संरक्षण में उसकी अनुगामिनी होती है। लम्पटों का यह गिरोह लोकतंत्र की मूल भावनओं से जुड़े युवाओं और दलों को नुकसान पहुँचा रहे हैं इसलिए इन पर अंकुश लगाना या रोकना बहुत जरूरी है। यह काम उनकी ऊर्जा के सार्थक स्तेमाल के द्वारा किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के ऊर्जा और संकल्प से भरे युवा मुख्य मंत्री इस काम को हाथ में लेकर एक नई पहल कर सकते हैं। वे समाजवादी युवजन सभा जैसे युवा संगठन का गठन करके उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं और युवाओं को कोई राजनीतिक कार्यक्रम सौंप सकते हैं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार से घिरे समाज में एक आन्दोलन छेड़ सकते हैं और अन्ध विश्वास व साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कराने का काम कर सकते हैं। यदि लम्पट युवाओं के चरित्र परिवर्तन के लिए काम नहीं किया गया तो वे किसी भी दिन युवा नेतृत्व को संकट में डाल सकते हैं।
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मंगलवार, मार्च 13, 2012

उत्तर प्रदेश- मुख्यमंत्री चयन में अमर सिंह की भूमिका


उत्तर प्रदेश – मुख्यमंत्री चयन में अमर सिंह की भूमिका  
वीरेन्द्र जैन    
      उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आ चुके हैं तथा सपा बसपा, भाजपा, कांग्रेस को प्राप्त सीटें, मत, आदि के बारे में विस्तार से चर्चाएं हो चुकी हैं व हो रही हैं। प्रदेश में अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के नेपथ्य में किसी समय के सब से महत्वपूर्ण व्यक्ति और उसकी नई पार्टी के बारे में चर्चा जरूरी है। मेरा आशय, श्री अमर सिंह और उनकी पार्टी लोकमंच से है जिसे लोकसभा और राज्य सभा में प्रतिनिधित्व करने वाले दो सांसदों के भरपूर प्रचार के बाद भी कहीं कोई सफलता नहीं मिली। कहने की जरूरत नहीं कि कभी समाजवादी पार्टी के सहारे देश की राजनीति में सक्रिय दखल रखने वाले अमर सिंह को लोकतंत्र में अपनी हैसियत का अहसास हो गया होगा। पूर्वांचल का नारा उछालने और समुचित मात्रा में धन व्यय करने के बाद भी फिलहाल उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं दिखता। अपने धन के बल पर वे किसी पिछड़े राज्य से एक राज्यसभा की सीट खरीद सकते थे या अपने पुराने मित्र अरुण जैटली के सहारे भाजपा में सम्मलित होकर राज्य सभा में पहुँचने का प्रयास कर सकते थे, किंतु उत्तर प्रदेश में बाबूलाल कुशवाहा को सम्मलित करने के बाद भाजपा  के अन्दर जितना तीव्र विरोध उभरा था उसे देखते हुए अब अरुण जैटली भी यह साहस नहीं जुटा पायेंगे। स्मरणीय है कि समाजवादी पार्टी को छोड़ने के बाद जब वे इंगलेंड गये थे तब वहाँ पर उनके कभी के ‘बड़े भाई’ अमिताभ बच्चन भी प्रवास पर थे किंतु उन्होंने बहाँ प्रवास पर गये हुए अरुण जैटली से लम्बी बात करना ज्यादा जरूरी समझा था। उन्होंने ही कभी जैटली के सहारे भाजपा से परोक्ष मदद लेकर मुलायम की सरकार बनवायी थी और तभी से मुलायम सिंह भाजपा के प्रति मुलायम हो गये थे। भाजपा के अन्य लोग उन्हें इसलिए भी पसन्द नहीं करेंगे क्योंकि न्यूक्लियर डील के मसले पर आये अविश्वास प्रस्ताव पर भाजपा के सांसदों को खरीदने का काम करने का आरोप अमर सिंह पर ही लगा था जिसके लिए उन्हें जेल तक की हवा खानी पड़ी। यह मामला अभी तक लम्बित है और सुप्रीम कोर्ट के रुख को देखते हुए इसमें दोषी पाये गये लोगों को दण्ड मिलना तय है। स्मरणीय है कि संसद में नोटों की गिड्डियां उछाले जाने के दृष्य को देश के चालीस लाख लोग देख रहे थे, यदि फिर भी किसी को सजा नहीं मिली तो देश की जनता का न्याय पर से रहा सहा विश्वास भी उठ जायेगा और सदन एक तमाशा बन कर रह जायेगा। इसलिए दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष को सजा मिलना तय होने के कारण यह गठजोड़ सम्भव नहीं हो सकता।
      सम्भावना यह भी हो सकती है कि वे सारे गिले शिकवे भुला कर मुलायम सिंह से आजम खान की तरह गले मिल जायें क्योंकि मुलायम सिंह अंतिम समय तक उन्हें पार्टी से निकालने से डरते रहे थे, पर मुलायम सिंह का परिवार उन्हें फूटी आँख भी नहीं देखना चाहता जिनमें अखिलेश भी शामिल हैं। पार्टी से अलग होने के बाद वे कहते भी रहे हैं कि समाजवादी पार्टी एक परिवार की पार्टी होकर रह गयी है। पिछले दिनों वे मुलायम सिंह के खिलाफ इतना विषवमन कर चुके हैं कि उन्हें वापिस लेने से समाजवादी पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ भाजपा की तरह एकदम नीचे चला जायेगा। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कहा है-
उनके जीने से ज्यादा जरूरी है मुलायम सिंह यादव का मरना। मुलायम सिंह ने मुसलमानों को हमेशा धोखा दिया है।  [दैनिक भास्कर 10 अगस्त 2010]
            “चौदह साल तक जिनकी जबान को कुरान की आयत और गीता का श्लोक समझा उन्हीं ने हमें रुसवा किया। मुलायम सिंह ने ही कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया। व्यक्तिगत रूप से में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह से बेहतर व्यक्ति मानता हूं क्योंकि वे साफ बात करते हैं और अपने कार्यों को स्वीकार करते हैं। कभी हमारे बगलगीर रहे मुलायम वर्ष 2003 में जनादेश की वजह से नहीं बल्कि मेरी कलाकारी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सके थे। राज बब्बर को समाजवादी पार्टी में लाने और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ विष्णु हरि डाल्मियाँ के बेटे संजय डाल्मियाँ को पार्टी का कोषाध्यक्ष और सांसद बनाने वाले मुलायम सिंह ही हैं।जनसत्ता 19 अक्टूबर 2010]
      मुलायम सिंह मेरे घर पर कब्जा किये हुये हैं और खाली नहीं कर रहे हैं। महारानी बाग का यह घर मैंने ही मुलायम सिंह को दिया था जिसका किरायानामा राम गोपाल के नाम से बना हुआ है जो मुलायम सिंह के निकट के रिश्तेदार हैं [डीबी स्टार नवम्बर 2010]
      आजम खान यह समझ लें कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो मुलायम सिंह यादव मुश्किल में पड़ जायेंगे, उनको जेल जाना पड़ सकता है, जो आजम खान मुझे दलाल कह रहे हैं, पहले वे जरा यह बताएं कि मैंने उन्हें क्या क्या दिया है। मुझे सप्लायर कहने वाले समाजवादी पार्टी के अन्य नेता भी आगे आकर बताएं कि मैंने उन्हें या मुलायम सिंह को क्या सप्लाई किया है,
अखिलेश को मैंने ही आस्ट्रेलिया भिजवाया था तथा मेरी ही राजनीति के सहारे यह चुनाव जीत सके हैं
अमर सिंह दाँवपेंच की जिस राजनीति के सहारे मुलायम के जनसमर्थन का सौदा उद्योगपतियों और व्यापार की राजनीति करने वालों से करते रहे हैं उसमें बहुत कुछ काला सफेद करना पड़ता है जिसे उन्होंने मुलायम सिंह की ओट में किया होगा। यही कारण है कि वे बार बार यह कहते रहते हैं कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो वे मुश्किल में पड़ जायेंगे। बहुत सम्भव है कि मुलायम सिंह द्वारा मुख्यमंत्री का पद ग्रहण न करने और सत्त्ता से दूर रहने के साथ साफ सुथरे जीवन वाले युवा अखिलेश को मुख्य मंत्री बना कर दूरदर्शिता से काम लिया हो। देखना होगा कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश में अनुभव हीन युवा मुख्यमंत्री कैसी कैसी चुनौतियों का सामना करता है!
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मार्च 07, 2012


2012 के विधानसभा चुनाव परिणामों में अन्ना हजारे फेक्टर
वीरेन्द्र जैन                                     
                पिछले दिनों जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया था तब पूरे मीडिया ने उन्हें राष्ट्रीय नायक बना दिया था और ऐसा लगता था कि पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ उठ खड़ा हुआ है। उस दौर में यह भ्रम भी होने लगा था कि गरीबी, बेरोजगारी, मँहगाई, असमानता, सामाजिक भेदभाव, विस्थापन, पानी, सड़क, बिजली आदि न होकर देश के पास इकलौता मुद्दा भ्रष्टाचार का ही है और आगामी अनेक चुनाव इसी मुद्दे के इर्दगिर्द लड़े जायेंगे। भ्रम होने लगा था कि इन चुनावों में जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा, लिंगभेद, के आधार पर होने वाले मतदान से मुक्ति मिलेगी और देश को समय पर  राज्य व केन्द्र के लिए भ्रष्टाचार से मुक्त स्वस्थ सरकारें मिलेंगीं। खेद की बात है कि 2012 के विधानसभा चुनाव परिणाम इस दिशा में एक कदम भी बढते नजर नहीं आये हैं। अन्ना हजारे का आंदोलन टायँ टाय़ँ फिस्स हो चुका है, और जाने माने भ्रष्टाचारी नेता व दल उन्हीं पुराने हथकण्डों से उसी  पुराने अन्दाज में वोट बटोरने का काम कर चुके हैं और वैसे ही परिणाम भी आ चुके हैं।
      पंजाब में प्रकाश सिंह बादल से लेकर उनके पुत्र सुखवीर सिंह बादल भी चुनाव जीते हैं जिन पर लम्बे समय से आरोप लगते रहे हैं। उनके ही भतीजे ने जो उनके मंत्रिमण्डल में महत्वपूर्ण मंत्री रहे थे अनेक आरोप लगाते हुए मंत्रिमण्डल से त्याग पत्र दिया था और अपनी अलग पार्टी बनायी थी। उनकी पार्टी द्वारा चुनाव लड़ने के कारण ही अकाली दल विरोधी वोट बँट गये और हर बार सत्ता बदलने की परम्परा का निर्वाह नहीं हुआ जिससे कई सीटों पर पहले से भी कम वोट पाकर भी अकाली उम्मीदवारों की जीत हो गयी है। उल्लेखनीय है कि जब स्विस बैंकों में जमा धन के बारे में आरोप प्रत्यारोप चरम पर थे उन्हीं दिनों सुखबीर सिंह बादल गोपनीय गैर सरकारी यात्रा पर विदेश गये थे, जिनके बारे में तरह तरह के कयास लगाये गये थे, पर उनके गठबन्धन की पार्टी भाजपा ने कोई सवाल नहीं उठाया था। उत्तर प्रदेश में भी ज्यादा सीटें जीतने वाले दोनों बड़े दल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे हैं। एनआरएचएम के साढे आठ हजार करोड़ के घोटाले और उसे दबाने के लिए उसमें हुयी नौ हत्याओं सहित मायावती को अठारह मंत्रियों को चुनाव से पहले निकालना पड़ा था तथा सौ से अधिक विधायकों का टिकिट भी काटना पड़ा था, पर फिर भी उनकी पार्टी अच्छी खासी संख्या में वोट ले गयी। उत्तर प्रदेश के सहोदर उत्तराखण्ड में भी उसने सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सीटें जीती हैं और वोट प्रतिशत भी बढाया है। उत्तराखण्ड में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में हटाया था और दूसरा ईमानदार मुखौटा मुख्यमंत्री नियुक्त किया था जो हार गया। कहा जा रहा है कि पिछले मुख्यमंत्री ने उसे हरवा दिया।  इतना होने पर भी भाजपा के मतों के प्रतिशत में बह्त ज्यादा कमी नहीं आयी।समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह पर भी सीबीआई की जाँच लम्बित है और उनके पुराने सहयोगी अमर सिंह बार बार तरह तरह के आरोप लगाते रहते हैं।
      उल्लेखनीय है कि पाँच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनाव परिणामों में भ्रष्टाचार का मुद्दा केन्द्र में नहीं रहा। न तो पार्टियों ने टिकिट देते समय इस को आधार बनाया और न ही जनता ने वोट देते समय ही ऐसे लोगों को ही मत दिया जो आरोपों से मुक्त हों। अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाने वाले बामपंथी दल इन चुनावों में सफल नहीं हो सके। इससे यह सन्देश मिलता है कि देश की जनता समाज में वांछित बदलावों को चुनावों से जोड़ कर नहीं देखती है। अन्ना के बहु चर्चित, और भीड़ जुटाऊ आन्दोलन के बाद भी  चुनाव उन्हीं पुराने हथकण्डों से लड़े और जीते जा रहे हैं। लोकप्रियता, जातिवाद, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, सामंती प्रभाव, साधु साध्वियों के भेषभूषा में रहने वाले राजनेताओं का भावनात्मक प्रभाव, आदि अब भी चुनाव में भूमिका निभा रहे हैं।  
      इन चुनावों में की गयी व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग की भरपूर तारीफ की जानी चाहिए जिसकी व्यवस्था ने न केवल उत्तर प्रदेश और मणिपुर जैसे संवेदनशील राज्यों में पूरी तरह शांतिपूर्वक और हिंसा मुक्त चुनाव करवाये अपितु नये मतदाता जोड़कर कुल मतदान के प्रतिशत में जबरदस्त वृद्धि  के लिए अनुकूल अवसर पैदा किया। इन चुनावों में न तो चुनावी धाँधली के आरोप लगे और न ही वोट खरीदे जाने की शिकायतें ही मिलीं। चुनाव के प्रारम्भ में ही जो करोड़ों की नकदी पकड़ी गयी उससे पैसे की दम पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार सतर्क हो गये और चुनावों में बड़े पैमाने पर धन और शराब की नदी बहने की खबरें नहीं आयीं।
       अन्ना हजारे की जिस टीम ने हिसार के उपचुनाव में अपना एक पक्षीय हस्तक्षेप दिखा कर जो भूल की थी उसके परिणाम स्वरूप उनकी अपनी टीम के ही कई सदस्य बिखर गये थे इसलिए उन्होंने घोषणा करने के बाद भी इन चुनावों में हस्तक्षेप नहीं किया, यह उनका प्रायश्चित था या असमंजस इसका मूल्यांकन होना बाकी है किंतु चुनाव परिणामों के बाद उनका बयान आया है कि जनलोकपाल बिल पास न करने के कारण ही कांग्रेस को सफलता नहीं मिली है, वह हास्यास्पद अवश्य है। उल्लेखनीय है कि हिसार चुनाव की तरह ही इन चुनावों में जीतने वाले ना तो बेदाग हैं और न ही वे उनके जनलोकपाल बिल के समर्थक ही हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, मार्च 05, 2012

पान सिंह तोमर - बैंडिट क्वीन का पुरुष संस्करण


फिल्म समीक्षा
पान सिंह तोमर- बैंडिट क्वीन का पुरुष संस्करण
वीरेन्द्र जैन

       पान सिंह तोमर की कहानी देश के लिए मेडल जीतने वाले एक जाँबाज़ धावक के बागी हो जाने की वैसी ही सच्ची कहानी है जैसी कि फूलन देवी के जीवन के पूर्वार्ध की कहानी थी और जिस पर उसके जीवन काल में ही ‘बेंडिट क्वीन’ के नाम से एक सफल फिल्म बनी थी भले ही उसके बाद का जीवन भी घटनाओं से भरा रहा था और उसका अंत बहुत दुखद हुआ| उसके असली हत्यारे  भी आज तक  पकड़े नहीं जा सके। सांसद चुने जाने के कुछ वर्ष बाद उसको उसके बंगले के बाहर ही गोली मार दी गयी थी। फिल्म पर बेंडिट क्वीन का प्रभाव होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि दोनों ही फिल्में सच्ची जीवन कथाओं पर आधारित हैं, जिनमें देश की पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर विश्वास खो देने के बाद ही कथा नायक/ नायिका ने बन्दूक उठा कर अपनी दम पर अपने लिए अपना न्याय स्वयं अर्जित करने की कोशिश की। उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए ही कानून को अपने हाथों में लिया और अपने साथ अत्याचार करने वालों को प्रतिशोध के गहरे आवेश में निर्ममता से मौत के घाट उतारा। चूंकि व्यवस्था की निगाह में उन पर हो रहा अन्याय अत्याचार गैरकानूनी नहीं था पर उनके द्वारा की गयी हिंसा कानून का उल्लंघन थी इसलिए अत्याचारियों को दण्ड देने के बाद उन्हें प्रशासन की पकड़ और उसकी पुलिस की हिंसा से बचने के लिए फरार रहना पड़ा। इस फरारी के दौरान अपना व अपने साथियो का पेट भरने, सुरक्षा के लिए हथियार व गोला बारूद खरीदने, तथा मुखबरी से बचने के लिए धन चाहिए होता था इसलिए उन्होंने लूट और अपहरण करके धन संग्रह किया। बैंडिट क्वीन फिल्म से एकरूपता होने का कारण यह भी है कि दोनों ही फिल्मों में तिग्मांशु धूलिया का योगदान है। बैंडिट क्वीन में वे शेखर कपूर के सहयोगी थे तो पानसिंह तोमर में वे स्वयं निर्देशक के रूप में उपस्थित हैं।
       अपने बीहड़ों और डाकुओं के लिए जाने जाने वाले भिंड-मुरैना क्षेत्र में अपनी आन के लिए जान पर खेल जाना बहुत आम बात है। गाँव छोड़ बीहड़ों में उतर जाने वाले अपने आप को डाकू नहीं अपितु बागी कहलवाना पसन्द करते हैं। पानसिंह तोमर की कहानी एक ऐसे फौजी की कहानी है जिसे भरपेट भोजन के शौक व उफनते जोश के कारण फौजी अधिकारी स्पोर्ट विंग में भेज देते हैं और जो देश और विदेश से मेडल जीतता है। उधर दूसरी ओर उसके खेत उसके ही रिश्तेदारों द्वारा दबा लिये जाते हैं, फसल काट ली जाती है, व सामंती वृत्तिवश अकारण ही उन्हें नीचा बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस तक अपनी फरियाद पहुँचना आसान नहीं होती और पुलिस हमेशा उसकी मदद करती है जो या तो प्रभावशाली होता है या उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे भेंट कर सके। अपने खेतों और परिवार के स्वाभिमान की रक्षा के लिए पानसिंह फौज की नौकरी छोड़ कर आ जाता है पर अत्याचार कर रहे अपने लाइसेंसी बन्दूकधारी रिश्तेदारों को रोक नहीं पाता। वह कलेक्टर, के पास जाता है, पुलिस के पास जाता है, पर कहीं भी उसकी सुनवाई नहीं होती। एक ऐसी ही असहनीय हिंसा से क्रोधित होकर वह अपना गिरोह बना लेता है और अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाता है। उसके मन में कहीं अपना पक्ष रखने की छटपटाहट है जिससे वह एक पत्रकार को साक्षात्कार देना स्वीकार करता है इसी साक्षात्कार के सहारे कहानी कही जाती है, जिसमें स्पोर्ट्स से सम्बन्धित अपनी उपलब्धियां गिनाते हुए वह अपने बागी बनने के कारणों पर प्रकाश डालता है। इस साक्षात्कार से लोगों को पता चलता है अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फौजी खिलाडी से गैर जिम्मेवार व्यवस्था कैसा व्यहवार करती है और उसे बागी बनने को मजबूर करती है। इशारों इशारों में फिल्म बहुत सारी बातें करती है। स्पोर्ट्स का कोच अपने रिश्तेदार को मेडल दिलवाने के लिए सुपात्रों को पीछे कर देते हैं। कलैक्टर अपना फैसला देने की जगह आपस में समझौता कर लेने  की सलाह देकर अपनी जान छुड़ाने की कोशिश करता है। पुलिस इंस्पेक्टर का ज्ञान और रुचि में देश के लिए जीता जाने वाले मेडल का कोई महत्व नहीं। पैसे की दम पर अत्याचारी अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस गार्ड लगवा सकता है और उससे नौकरों की तरह शराब लाने का काम ले सकता है। पटवारी ले दे कर किसी के खेत किसी के नाम दिखा सकता है, जो आम तौर पर हिंसा का कारण बनता है। पर डाइरेक्टर ने अपनी व्यावसायिक दूरदृष्टिता से राजनीतिक पक्ष को दूर रखा है, जबकि आजकल राजनीतिक दल के नाम से काम करने वाले गिरोह भी शोषण के तंत्र में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।[केवल एक संवाद में नाय़क कहता है कि मैं फौज में इसलिए आया क्योंकि बाकी सब जगह चोर बैठे हैं।]
       फिल्म में कसावट है, यथार्थ है, और कुछ भी अनावश्यक नहीं ठूंसा गया है, न संगीत, न नृत्य, न संवाद, न संवाद के नकली स्वर। इस पर भी फिल्म लगातार दर्शक को बाँधे रखती है। फिल्म में इरफान ने अपनी भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से निभायी है पर निर्देशक उसके डकैत बनने और बीहड़ में रहने के बाद भी उसे चिकना चुपड़ा दिखाने का मोह नहीं त्याग सका। यही भूल उसने नायक की पत्नी की भूमिका निभाने वाली माही गिल के मेकअप के साथ भी की है, ये दोनों ही स्थानीय और गिरोह के लोगों से अलग दिख कर अस्वाभाविकता पैदा करते हैं। क्षेत्र विशेष के लोगों को उच्चारण भी खटक सकता है।  
       कुल मिला कर यह फिल्म बैंडिट क्वीन परम्परा की एक आफबीट अच्छी फिल्म कही जा सकती है, जिसमें व्यवस्था की समीक्षा निहित है। इसकी सराहना की जानी चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

आरएसएस और पारदर्शिता


सूप तो सूप छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद
               आरएसएस और पारदर्शिता
                                                                          वीरेन्द्र जैन
      राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने गत दिनों यूपीए अध्यक्ष सोनिया गान्धी पर आरोप लगाया कि वे  इमरजेंसी वाली मानसिकता की है जो निरंकुश शासन और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का परिचायक है। उनका कहना है कि श्रीमती गान्धी ने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया है जो कि एक समानांतर सत्ता केन्द्र है। आर्गनाइजर और पाँचजन्य के ताजा अंकों के माध्यम से संघ का कहना है कि वे इसी मानसिकता के के चलते वे देश  की जनता से अपना धर्म, बीमारी और आयकर सम्बन्धी जानकारी भी छुपाती हैं।
      रोचक यह है यह व्यक्तिगत जानकारियों को सार्वजनिक न करने का यह प्रश्न एक ऐसे संगठन ने उठाया है जो स्वयं में ही न केवल झूठ की नींव पर खड़ा है अपितु जिसके सारे के सारे काम गोपनीय होते हैं और जिसके लोग अपनी सच्चाई छुपाने के लिए हमेशा निरर्थक प्रतिक्रियावादी सवाल उठा कर अपनी कमजोरियां छुपाने की कोशिश करते रहते हैं। स्मरणीय है कि संघ अपने आप को सांस्कृतिक संगठन की तरह पंजीकृत कराये हुए हैं जबकि वे न केवल हर कोण से राजनीतिक हैं अपितु सांस्कृतिक कार्यों से उनका दूर का भी नाता नहीं है। 1948 में महात्मा गान्धी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब उसे उठाने के लिए दिये गये प्रार्थना पत्र में संघ के नेतृत्व ने तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को आश्वस्त करते हुए कहा था कि संघ कभी भी राजनीति में भाग नहीं लेगा। पर संघ ने इस वादे पर कभी अमल नहीं किया और अपने स्वयं सेवक भेज कर जनसंघ पार्टी का गठन करा दिया। उस समय से लेकर अब तक जनसंघ, जिसने बाद में अपना नाम भारतीय जनता पार्टी रख लिया है, के सभी स्तर के संगठन सचिव अनिवार्य रूप से आरएसएस के प्रचारक ही होते हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने सारे नीतिगत मुद्दों की पुष्टि संघ के नेतृत्व से लेता है तथा संगठन से लेकर सरकार तक की सारी नियुक्तियां संघ से पूछ कर ही की जाती हैं। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मोल्लि चन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ही अपने पद से त्यागपत्र दिया था व उसके बाद कोई अध्यक्ष संघ से टकराने की हिम्मत नहीं कर सका।  संघ के पदाधिकारियों की नियुक्ति में किसी लोकतांत्रिक तरीके का प्रयोग नहीं होता है पर वे दूसरे को अलोकतांत्रिक बता कर निन्दा करने में सबसे आगे रहते हैं और ऐसा करने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती। पाकिस्तान जाकर ज़िन्ना के मजार पर फूल चढाने के बाद उनकी प्रशंसा करने के आरोप में अडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेता को पार्टी अध्यक्ष का पद संघ के आदेश पर छोड़ना पड़ता है, और संघ की नापसन्दगी के कारण जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को लोकसभा में विपक्ष के नेतापद से वंचित करने के लिए निकालने का ड्रामा किया जाता है। गडकरी जैसे साधारण और दोयम दर्जे के नेता को देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी अपना अध्यक्ष संघ के आदेश पर ही चुनती है तथा उपलब्धिहीन कार्यकाल के बाद भी दूसरी बार अध्यक्ष बनाने के लिए तैयार बैठी है। अपने इन फैसलों के लिए देश तो क्या अपनी बगल बच्चा पार्टी के लोगों को भी वे विश्वास में लेने की जरूरत नहीं समझते।
      स्मरणीय है कि संघ अपने विशाल संगठन को संचालित करने के लिए धन संचय करता है और यह धन गुरु दक्षिणा के रूप में बन्द लिफाफों में लेने का ढोंग करता है। इन बन्द लिफाफों के पीछे का राज यह है कि उन्हें काले सफेद देशी विदेशी धन को ग्रहण करने के बारे में कोई जबाब नहीं देना पड़े। उल्लेखनीय है कि उनके पास एकत्रित धन की पवित्रता के बारे में समय समय पर सन्देह व्यक्त किये जाते रहे हैं। यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किसी के व्यक्तिगत धन के बारे में  अतिरिक्त चिंताएं दर्शा रहा है जिसने स्वयं द्वारा प्रसूत राजनीतिक दल के नेताओं की सम्पत्ति और आय को घोषित करने के बारे में  तब भी आग्रह नहीं किया जब कि उनकी राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष खुले आम नोटों के बंडल लेता हुआ कैमरे की कैद में आ जाता है और उसके एक दूसरे बड़े नेता को उसके भाई ने अतिरिक्त धन के लालच में गोली मार दी थी व उसका सुपुत्र इसी धन के मद में ‘जवानी की भूल’ कर रहा था।
      उल्लेखनीय है कि संघ की सदस्यता का कोई रजिस्टर नहीं होता और वे अपनी सुविधा अनुसार किसी को भी अपना सदस्य घोषित कर देते हैं या उससे इंकार कर देते हैं। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गान्धी की हत्या कर देने के बाद संघ ने कह दिया था कि गोडसे ने गान्धीजी को मारने से पहले संघ को छोड़ दिया था। यही बात पिछले दिनों कई आतंकी बम विस्फोटों के लिए आरोपी बनायी गयी प्रज्ञा सिंह व उसके साथियों की गिरफ्तारी के बाद कही गयी थी। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो संगठन अपनी सदस्यता के लिए किसी भी फार्म या रजिस्टर के न होने का दावा करता है वह कुछ ही घंटों में यह कैसे बता देता है कि कौन अब उसके संगठन का सदस्य नहीं है।

                यद्यपि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में पारदर्शिता को उनके विशेष गुण के रूप में देखा जाना चाहिए किंतु किसी दूसरे व्यक्ति विशेष से इसका आग्रह करते समय भूमि के कानून से अधिक की अपेक्षा करना न्याय संगत नहीं है। इसकी जगह ऐसी माँग रखने वाले लोगों को अपनी सम्पत्ति और आय की घोषणा करके एक बड़ी लकीर खींच कर दिखाना चाहिए। वैसे चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य है और उनके द्वारा दिया गया शपथपत्र चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध होता है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान श्रीमती सोनिया गान्धी ने जो शपथ पत्र प्रस्तुत किया था उसके अनुसार उनके पास कुल एक करोड़ सैंतीस लाख की कुल सम्पत्ति है जिसमें से एक करोड़ सत्तरह लाख की चल सम्पत्ति और बीस लाख की अचल सम्पत्ति है। चल सम्पत्ति बैंक जमा, म्यूचल फंड आदि के रूप में है।
      किसी की बीमारी और धर्म के बारे में जानने का दुराग्रह नितांत अनैतिक और अशालीन है। एक धर्म निरपेक्ष देश में जहाँ प्रत्येक धर्म, जाति, लिंग, को समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं वहाँ किसी के धर्म को जानने की अनाधिकार कोशिश कोई साम्प्रदायिक सोच का व्यक्ति या संगठन ही करना चाहेगा। स्मरणीय है कि पिछले दिनों संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन ने श्रीमती सोनिया गान्धी के विरुद्ध जब अनर्गल बयान दिया था तब उन्हीं के संगठन के लोगों ने उनके मानसिक स्वास्थ ठीक न होने के बहाने अपना मान बचाया था, पर यदि कोई उनके मानसिक स्वास्थ के बारे में अतिरिक्त जिज्ञासा करता तो क्या संघ के लोगों को अच्छा लगता?
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, फ़रवरी 19, 2012

उत्तर प्रदेश के एन आर एच एम घोटाले - दूसरे राज्य कब सबक लेंगे?


उत्तर प्रदेश के एनआरएचएम घोटाले
 दूसरे प्रदेश कब सबक लेंगे?
वीरेन्द्र जैन
      उत्तर प्रदेश में शर्मनाक अति हो चुकी है। वहाँ एनआरएचएम घोटालों से जुड़े नौ व्यक्तियों की सन्देहात्मक परिस्तिथियों में क्रमशः मृत्यु हो चुकी है और इन मौतों के हत्या होने में शायद ही किसी को सन्देह हो। इतना ही नहीं इन मौतों में से ज्यादातर को आत्महत्या बनाने की कोशिशें भी हुयी हैं। कुछ मौतें तो सरकारी कस्टडी में हुयी हैं। इससे पहले भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में शायद ही इतने ठंडे तरीके से किसी चर्चित मामले में क्रमशः हत्याओं का दुस्साहस पूर्ण कारनामा हुआ हो।
      यह केवल सरकारी संरक्षण में चल रहे आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित मामला नहीं है अपितु यह पूरी व्यवस्था पर ही सवाल खड़े करता है कि हम किस जंगल तंत्र में जीने को विवश हैं। इस जंगलतंत्र का एक रूप हमने गुजरात में देखा था जहाँ आज भी अपराधी न केवल स्वतंत्र हैं अपितु शान से सत्ता सुख लूट रहे हैं क्योंकि वे अपने दुष्प्रचार से मतदाताओं के एक वर्ग को बरगलाने में सफल हैं और हम लोकतंत्र के नाम पर उनको अपने अपराध छुपाने दबाने व जाँच एजेंसियों को प्रभावित करने की ताकत देने के लिए मजबूर हैं। हरियाणा में चुनावों से ठीक पहले कुछ लोग खाप पंचायत के फैसले के नाम पर सरे आम हत्याएं कर देते हैं और लगभग सभी पार्टियों में बैठे, सत्तासुख के लिए वोटों के याचक उनका खुल कर विरोध भी नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें एक जाति के नाराज हो जाने का खतरा था। न्याय व्यवस्था के रन्ध्रों में से निकल कर लम्बे समय तक सुख से जीने वाले अपराधी न्याय में भरोसा रखने वालों को मुँह चिढाते लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप लोग जंगली न्याय में भरोसा करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा के पीछे यह एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है। जो लोग न्याय को लम्बे समय तक टलवाते रहने के दोषी हैं वे भी सजा मिलने के बाद में अपनी उम्र और बीमारी का सहारा लेकर सजा माफ करने की अपील करते हैं और कई बार इसे स्वीकार भी कर ली जाती है। मध्य प्रदेश जैसे राज्य में कमजोर अभियोजन के सहारे सतारूढ दल से जुड़े अपराधी खुले आम किये गये अपराधों में भी सन्देह का लाभ पाकर छूट रहे हैं। इससे सारे अपराधी सत्तारूढ दल के नेताओं का संरक्षण तलाशने और उनके पक्ष में आतंक पैदा कर लोकतंत्र को कलंकित कर रहे हैं।
      जनप्रतिनिधि चुने जाने और सत्ता में आने के बाद संविधान में विश्वास होने की शपथ लेनी होती है, किंतु जब ये राजनेता उसी शपथ का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें चुने जाने के बाद भी उस पद पर नहीं रहने दिया जाना चाहिए। उसकी जगह उनके ही दल के किसी दूसरे बेदाग सदस्य को जनप्रतिनिधि नामित किया जा सकता है जिससे लोकतंत्र की भावना को ठेस नहीं लगे। संविधान विरोधी काम करने वाले अपराधी को संविधान सम्मत शासन चलाने और कानून बनाने की जिम्मेवारी नहीं सौंपी जा सकती। जब तक व्यक्ति की जगह दल को महत्व नहीं मिलेगा तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज विचार और कार्यक्रम की जगह विभिन्न कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों, अवैध तरीके से धन कमाने वालों या मतदाताओं को आतंकित करने वाले दबंगों को टिकिट देने की बीमारी सभी दलों में घर करती जा रही है जिसका नमूना हमने हाल के विधान सभा चुनावों में टिकिट वितरण समेत सभी पिछले चुनावों के दौरान भी देखा है। एक राष्ट्रीय दल ने तो उसी आरोपी राजनेता को अपने दल में सम्मलित करने में किंचित भी शर्म महसूस नहीं की जिसके भ्रष्टाचार का विरोध वे लगातार करते आ रहे थे। उल्लेखनीय है कि यही दल सबसे अधिक शुचिता का ढिंढोरा पीटता रहता है।
      देखा गया है कि जनता की ओर से माँग उठे बिना जब सामाजिक विकास और सशक्तिकरण की योजनाएं लागू की जाती हैं तो वे भ्रष्टाचार की शिकार हो जाती हैं। हितग्राही वर्ग को पता ही नहीं होता कि उसके लिए कोई योजना आयी है और उसके लिए पात्रता के क्या मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। सरकारी नौकरशाही उसे किसी खैरात की तरह देती है और उसमें से अपना हिस्सा काट लेती है। कई बार तो पूरी की पूरी राशि ही डकार ली जाती है। छत्तीसगढ में आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित राशियों के साथ यही खेल चलता रहा है व उन क्षेत्रों में पदस्थ किये गये इंजीनियर और विकास अधिकारियों की सम्पत्तियां आँखें खोल देती हैं। इसी का परिणाम है कि वहाँ आज नक्सलवादियों के आवाहनों का असर होता है पर सरकारी मशीनरी को नफरत की निगाह से देखा जाता है। आर्थिक भ्रष्टाचार के सामाजिक प्रभावों के बारे में बहुत कम बातें की गयी हैं और केवल उसके आर्थिक पक्ष को ही देखा जाता है। राष्ट्र्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन में भ्रष्टाचार का केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं है अपितु यह भी देखा जाना जरूरी है कि उस भ्रष्टाचार के कारण कितने शिशुओं की अकाल मौतें हुयी हैं और कितने कुपोषण के शिकार हुये हैं। जब ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने वाली बीमारियों और जननी सुरक्षा के लिए आवंटित राशि में भ्रष्टाचार से लगातार मौतें हो रही हैं तब प्रत्येक राज्य में एनआरएचएम में भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाये जाने वालों पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए। जिले के स्वास्थ अधिकारी का काम केवल बीमार की चिकित्सा करना भर नहीं है अपितु उसे बीमारी न फैलने देने के लिए टीकाकरण और दूसरी सावधानियों के प्रति भी सक्रिय होना चाहिए।
      एनआरएचएम योजना देश के अठारह राज्यों में लागू की गयी थी जिसके लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को धन उपलब्ध कराया था। जो भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में उजागर हुआ है वही मध्यप्रदेश समेत दूसरे राज्यों में भी जारी है। प्रदेश के अनेक अधिकारी और मंत्री आयकर विभाग व लोकायुक्त की जाँच के घेरे में हैं व भविष्य में आ सकते हैं क्योंकि मध्य प्रदेश में राजनैतिक चेतना का स्तर काफी पिछड़ा हुआ है जिससे मीडिया भी सत्ता के प्रभाव से ग्रस्त रहता है। भ्रष्टाचार का कोई भी बड़ा मामला मीडिया के द्वारा सामने नहीं आया है। बहुत छोटे अखबारों की कहीं कोई पहुँच नहीं है और बड़े अखबार गम्भीरतम मामलों में भी शर्मनाक चुप्पी साधे रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जिस ढंग से यह घोटाला हुआ है उसी को आधार बना कर मध्य प्रदेश समेत सभी सम्बन्धित अठारह राज्यों में तुरंत गहन निरीक्षण कराया जाना चाहिए ताकि समय रहते कुछ सुधारात्मक उपाय किये जा सकें।
      एक महत्वपूर्ण कथन है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, फ़रवरी 17, 2012

उमा भारती और उत्तर प्रदेश के चुनाव


उमा भारती और उत्तर प्रदेश के चुनाव
वीरेन्द्र जैन
      उमा भारती की भाजपा में वापिसी और उनका मध्य प्रदेश से निष्कासन ही नहीं अपितु उसके बाद का घटनाक्रम भी नाटकीय रहा है। भाजपा जैसी रामलीला पार्टी में यह बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उन्हें न केवल चुनाव का स्टार प्रचारक ही बनाया गया अपितु एक सीट से उम्मीदवार भी बनाया गया है। जब प्रदेश भाजपा का कोई दूसरा कोई बड़ा नेता यह दावा भी नहीं कर रहा है कि अगर भाजपा की सरकार बनी तो उसे ही मुख्य मंत्री बनाया जायेगा किंतु तब उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ने वाले प्रमुख नेताओं में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और एनडीए शासन काल में केन्द्रीय सरकार में मंत्री रही उमा भारती का दिवास्वप्न अस्वाभाविक नहीं है बशर्ते कि वे स्वयं चुनाव जीत जायें और उनकी पार्टी स्वयं में इतनी सीटें जीत ले ताकि किसी दूसरे दल से समझौता करके सरकार बनाने में सफल हो पाये। किंतु यह अन्धविश्वास किसी मुंगेरीलाल को भी नहीं है कि भाजपा पहले तीन पायदान तक पहुँच सकेगी इसलिए उमाभारती  के नेतृत्व के सवाल पर सभी मन्द मन्द मुस्कराते हुए मौन हैं। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। चुनाव परिणामों के बाद न तो कांग्रेस भाजपा को गठबन्धन में सम्मलित कर सकती है और न ही समाजवादी पार्टी। बहुजन समाज पार्टी ने जितनी बार भी भाजपा के साथ सरकार बनायी तब सदैव ही भाजपा को निचले पायदान पर रखा है और गठबन्धन के समय अधिक सदस्य होते हुए भी पहले अपने नेतृत्व वाली सरकार बनायी। तय है पुनः ऐसा कोई अवसर आने पर मायावती भाजपा के नेतृत्व में सरकार चलाने की जगह विपक्ष में बैठना अधिक पसन्द करेंगीं। इसलिए यह तो तय है कि न तो भाजपा की सरकार बन रही है और न ही उमा भारती मुख्यमंत्री। कहा जा रहा है कि उन्हें इसलिए चरखारी से टिकिट दिया गया है ताकि वे बीच चुनाव में कोई बहाना ले कर भाग न निकलें। स्मरणीय है कि बाबू सिंह कुशवाहा के साथ भाजपा द्वारासौदा करने का तीव्र विरोध उन्होंने इसीलिए किया था बरना सुखराम जयललिता आदि से लेकर चौटाला आदि द्वारा समर्थित एनडीए सरकार में मंत्री रहने में उन्हें कभी कोई आपत्ति नहीं रही।  
      इस विषय में रोचक यह है कि मध्य प्रदेश के वे नेता उनकी जीत की कामना और प्रयास कर रहे है जो उनके घनघोर विरोधी रहे हैं। वे चाहते हैं कि उमा भारती इधर से टलें ताकि वे चैन की साँस ले सकें। स्मरणीय है कि बड़ामल्हरा उपचुनाव के दौरान उमा भारती ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर उनकी हत्या का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था। यही कारण है कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा के पट शिष्य शिवराज उमाभारती से वैसी ही दुश्मनी मानते हैं जैसी कि पटवाजी मानते हैं। पिछले दिनों ही पटवाजी ने एक बयान में उमाभारती के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था कि वे अब मध्य प्रदेश की वोटर ही नहीं रहीं। पहले भी उन्होंने उमा भारती के बारे में टिप्पणी करते हुए त्रिया चरित्रस्य पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः कह कर बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। उल्लेखनीय है कि उमा भारती का जिक्र आने पर उनके स्वर में कटुता आ जाती है।
      उत्तर प्रदेश भाजपा में दूसरे भगवा भेषधारी नेता योगी आदित्यनाथ हैं जो भाजपा में रहते हुए भी भाजपा में नहीं हैं अपितु भाजपा उनमें है। वे भाजपा के अनुशासन में नहीं रहते व संघ परिवार के समानांतर अलग से वैसे ही अपने संगठन बनाये हुए हैं। वे भाजपा नेताओं का सम्मान नहीं करते अपितु चुनाव जीतने के लिए भाजपा नेता उनकी चिरौरी करते हैं। विधानसभा के पिछले चुनावों के दौरान भी वे भाजपा को छोड़ कर चले आये थे तब भाजपा के बड़े बड़े नेता उनको मनाने उनके दर पर गये थे और क्षमा मांगते हुए उनके सभी लोगों को उन जगहों से टिकिट दे दिया था जिनके लिए योगी ने आदेश दिया था। अभी भी गत दिनों योगी ने लखनऊ में एक प्रैस कांफ्रेंस में कहा कि किसी को भी बहुमत नहीं मिलेगा। चुनाव के दौरान दिया गया यह बयान यथार्थवादी होते हुए भी न केवल अप्रत्याशित था अपितु इस बात का भी प्रमाण था कि भाजपा नेतृत्व को भी चुनाव जीतने का कोई भरोसा नहीं है। दूसरी ओर नईदिल्ली में भाषण करते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भाजपा की चुनावी नैया उत्तर प्रदेश में डांवाडोल हो रही है। भाजपा उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आनेवाली है इसलिए स्वयं सेवकों को चाहिए कि वे आँख मूंद कर भाजपा का समर्थन नहीं करें। भाजपा का समर्थन केवल वहीं किया जाये जहाँ वह जीतने की स्थिति में है। उन्होंने अन्य स्थानों पर बहुजन समाज पार्टी का समर्थन करने का आवाहन किया।
      यदि उमाभारती अपनी सीट जीत लेती हैं तो वे जिन्दगी भर के लिए मध्यप्रदेश से बाहर हो जायेंगीं और यदि हार जाती हैं तो उनके नेतृत्व पर सदा के लिए सवालिया निशान लग जाता है। यह भी तय हो जायेगा कि जिन लोधी वोटों के लालच में उमाभारती को उम्मीदवार बनाया था वैसा कुछ नहीं बचा तथा लोधियों का नेतृत्व कल्याण सिंह आदि नेता ही करते हैं। गतदिनों  अपनी भारतीय जनशक्ति की ओर से जब मध्य प्रदेश की सभी सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े किये थे, तब पूरे प्रदेश में कुल मिला कर उन्हें 12 लाख वोट मिल सके थे। उत्तर प्रदेश में पराजय के बाद वे कहीं की नहीं रहेंगीं।
वीरेन्द्र जैन
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